
इंदौर। भाजपा की कोर कमेटी के अस्तित्व पर ही अब सवाल खड़े होने लग गए हैं। एमआइसी सदस्य राजेंद्र राठौर को हटाने की घटना से बवाल शुरू हो गया। अंदर ही अंदर आग सुलग रही है। पार्टी नेताओं का मानना है कि ऐसे फैसले तो कमेटी में बैठकर होते हैं, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। मजेदार बात तो ये है कि महीनों से इंदौर में कोर कमेटी की बैठक ही नहीं हुई है।
स्वच्छता में नंबर वन आने का खिताब लाने के बाद भले ही देशभर में निगम की वाहवाही हो रही है, लेकिन महापौर मालिनी गौड़ के नेतृत्व वाली परिषद का स्वास्थ्य खराब है। साढ़े तीन साल में एमआइसी की समिति और जोन अध्यक्ष तक नहीं बन पाए हैं। इसके अलावा दो नंबरी पार्षद दो साल से निगम की तरफ झांक भी नहीं रहे हैं तो सभापति अजय सिंह नरुका व एमआइसी सदस्य दिलीप शर्मा की अफसरों से पटरी नहीं बैठ रही है। वे खुलकर मोर्चा संभाले हुए हंै। यही हाल पार्षदों के हैं, लेकिन व बोलने की स्थिति में नहीं हैं।
वास्तविकता में इन सब बवालों पर नियंत्रण की जिम्मेदारी नगर भाजपा की समन्वय समिति और कोर कमेटी की होती है। महापौर गौड़ के कार्यकाल में समिति का गठन हुआ नहीं और राजेंद्र राठौर से स्वास्थ्य प्रभारी का पद छीनने के बाद से कोर कमेटी के अस्तित्व पर अब सवाल खड़े होने लग गए। संगठन के कायदे-कानून के हिसाब से ये मुद्दा पहले कोर कमेटी की बैठक में आना चाहिए था।
उस पर सभी नेताओं की राय जानने के बाद जब सब सहमत होते तो उसे अनुमोदित करके प्रदेश संगठन महामंत्री को भेजा जाता। तब प्रदेश अध्यक्ष के माध्यम से मुख्यमंत्री को सूचना दी जाती है। राठौर को हटाए जाने का फैसला निगम के गलियारों में ही हो गया। आज तक कैलाश विजयवर्गीय से लेकर कृष्णमुरारी मोघे तक की परिषद में ऐसा नहीं हुआ। पहला राजनीतिक फैसला माना जा रहा है जो कि प्रशासनिक तौर पर लिया गया जिस पर गौड़ की भी सहमति थी।
नहीं होती है कोर कमेटी
भाजपा खुद कैडर बेस पार्टी होने का दावा करती है। बताया जाता है कि पार्टी में सामूहिक फैसले लिए जाते हैं। इसके चलते पार्टी ने ढांचा तैयार किया है कि प्रदेश हो या जिला स्तर के फैसले कोर कमेटी में ही होंगे। स्थानीय निकाय में काबिज होने पर कोर कमेटी फैसला करती है और उसके हिसाब से सत्ता को चलना होता है। इंदौर में ये बातें गौण हो गई हैं।
यह परंपरा शंकर लालवानी के नगर भाजपा अध्यक्ष तक बनी हुई थी। कैलाश शर्मा के अध्यक्ष बनने के बाद से सारी व्यवस्था ध्वस्त हो गई। बची कसर मालिनी गौड़ के महापौर और मनीष सिंह के कमिश्नर बनने के बाद पूरी हो गई। स्थिति ये बन गई कि निगम के कोई भी फैसले दीनदयाल भवन से नहीं हुए, जबकि विजयवर्गीय और मोघे जैसे धुरंधरों को भी संगठन के हिसाब से सत्ता चलानी पड़ी थी।
Published on:
28 Apr 2018 10:16 am
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