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आरक्षण की राजनीति से समाज में बढ़ती जातिगत दूरियों की जानिए हकीकत

आरक्षण को लेकर नए सिरे से बनने लगी है जातिगत टकराव की आशंका।

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Dhirendra Kumar Mishra

Apr 10, 2018

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नई दिल्‍ली। इस विवाद की शुरुआत सुप्रीम कोर्ट के निर्णय से हुई है। शीर्ष अदालत ने एससी/एसटी एक्‍ट के दुरुपयोग को देखते हुए आरोपी की तत्‍काल गिरफ्तारी पर रोक लगाने को कहा था। लेकिन राजनीतिक स्‍तर पर इसका दुष्‍प्रचार इतना हुआ कि इसने न केवल हिंसक दलित आंदोलन को जन्‍म दिया बल्कि आज उसके विरोध में सवर्णों और ओबीसी के लोगों का भी भारत बंद जारी है। आठ दिनों के अंदर दोनों तरफ से बंद के आयोजनों से ऐसा लगने लगा है कि कहीं आरक्षण की वजह से नए सिरे से जातिगत दूरियां तो लोगों को बीच नहीं पनपने लगी है। इस बात को वर्तमान परिदृश्‍य में कोई सिरे से खारिज करने को तैयार नहीं है।

क्‍यों बनीं ये स्थिति?
दरअसल, अनुसूचित जाति एवं जनजातियों के लिए आरक्षण लागू होने के लगभग छह दशक बीत चुके हैं और मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू होने के भी लगभग ढाई दशक से ज्‍यादा हो गया है। इसके बावजूद भी भारतीय राजनीतिक व्‍यवस्‍था के समक्ष एक यक्ष प्रश्‍न पहले की तरह मुंह बाए खड़ी है। वो प्रश्न यह है कि क्‍या आरक्षण की राजनीति से संबंधित पक्षों को लाभ मिला? अगर नहीं तो क्‍या यही आरक्षण की राजनीति अब समाज के जातिगत दूरियों को बढ़ावा देने में सहायक तो साबित नहीं हो रही है। क्‍योंकि पिछले कुछ वर्षों से आरक्षण को नए सिरे परिभाषित करने की मांग होने लगी है। इसके पीछे तर्क यह दिया जा रहा है कि अब हर जाति और समुदाय में एक बड़ा तबका गरीब है। ऐसे केवल एससी या एसटी वालों को आरक्षण ?

इस बहस का मतलब क्‍या है?
सामाजिक और राजनीतिक विश्‍लेषकों का मानना है कि जब देश आजाद हुआ तो जातिगत आधार पर पिछड़े समुदाय के लोगों को मुख्‍यधारा से जोड़ने की समस्‍या सुरसा की तरह मुंह बाए खड़ी थी। संविधान निर्माताओं ने इन्‍हीं बातों को ध्‍यान में रखते हुए एससी और एसटी के लिए 10 साल के लिए आरक्षण की व्‍यवस्‍था का अस्‍थायी प्रावधान रखा था। यह धीरे-धीरे स्‍थायी व्‍यवस्‍था में तब्‍दील हो गई। यह मामला अब इतना तूल पकड़ चुका है कि एससी और एसटी तबके लोग इसे वंचितों को मुख्‍यधारा से जोड़ने का जरिया न मानकर संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकार के रूप में प्रयोग करने लगे हैं। दूसरी तरफ अब यह माना जाने लगा है कि केवल वंचित तबके और छोटी जातियों में ही गरीबी नहीं है, बल्कि ओबीसी और सवर्णों में गरीबी बड़े पैमाने पर गरीबी है। इस बात को ध्‍यान में रखते हुए आरक्षण पर पुनर्विचार करने की मांगे उठने लगी हैं। लेकिन एससी और एसटी की तरफ से इसका प्रबल होने की वजह से आरक्षण अब जातिगत तनाव का करण बनता जा रहा है।

आरक्षण को लेकर रार क्‍यों?
जानकारों की मानें तो स्वतंत्रता प्राप्ति के समय से ही भारत में अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए सरकारी नौकरियां शिक्षा में आरक्षण लागू है। मंडल आयोग की संस्तुतियों के लागू होने के बाद वर्ष 1993 से ही अन्य पिछड़े वर्गों के लिए नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था कर दी गई। वर्ष 2006 में सरकार ने 104वें संविधान संशोधन के द्वारा केंद्र सरकार के शिक्षण संस्थानों में भी अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण लागू हो गया। इस प्रकार आज समाज के अत्यधिक बड़े तबके को आरक्षण की सुविधाओं का लाभ प्राप्त हो रहा है, लेकिन इस आरक्षण नीति का परिणाम क्या निकला। सवर्ण जाति और क्रीमिलेयर के दायरे में आने वाला ओबीसी का बड़ा तबका खुद को सभी अवसरों से वंचित मानने लगा है। इन लोगों को मानना है कि योग्‍यता के आधार पर जो अवसर हमारे पास उपलब्‍ध था वो भी आरक्षण के नाम पर जारी वोट बैंक की वजह से हमारे हाथ से चला गया। दूसरी बात जिस आरक्षण की व्‍यवस्‍था वंचितों को मुख्‍यधारा से जोड़ने के लिए बनाई गई थी उसके लाभ को देखते हुए एससी और एसटी समुदायों के लोगों ने उसे एक तरह से मौलिक अधिकार मान लिया है।

आरक्षण का मकसद तो कुछ और ही था
आपको बता दें कि स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भारत में दलितों एवं आदिवासियों की दशा अति दयनीय थी| इसलिए हमारे संविधान निर्माताओं ने काफी सोच समझकर इनके लिए संविधान में आरक्षण की व्यवस्था की और वर्ष 1950 में संविधान के लागू होने के साथ ही सुविधाओं से वंचित वर्गों को आरक्षण की सुविधा मिलने लगी, ताकि देश के संसाधनों, अवसरों एवं शासन प्रणाली में समाज के प्रत्येक समूह की उपस्थिति सुनिश्चित हो सके। इसका सबसे अहम मकसद था वंचित तबकों को मुख्‍यधारा से जोड़ना लेकिन अब इसका लाभ एससी और एसटी श्रेणी के सबल लोग पूरी तरह से उठा रहे हैं, जिसके वजह से आरक्षण के मकसद को लेकर ही सवाल उठाए जाने लगे हैं।

जनार्दन द्विवेदी ने किया था आर्थिक आधार पर आरक्षण की वकालत
वर्ष 2014 के प्रारंभ में कांग्रेस पार्टी के तत्‍कालीन महासचिव जनार्दन द्विवेदी ने कहा था कि देश में आरक्षण जाति आधार पर नहीं, बल्कि आर्थिक आधार पर किया जाना चाहिए| वास्तव में जनार्दन द्विवेदी जी की कही बात पर गंभीरता पूर्वक विचार विचारने का समय आ गया है, क्योंकि आज प्रशन गरीबी का है और गरीबी की कोई जाति या धर्म नहीं होता। आज समाज के हर वर्ग के उत्थान हेतु आरक्षण के अलावा अन्य विकल्प भी खोजा जाना चाहिए, ताकि समाज में सब के साथ न्याय हो सके और सभी वर्गों के लोग एक साथ उन्नति के पथ पर अग्रसर हो सके और जिसस तरह से जातिगत दूरियां बढ़ रही है उसे कम करना संभव हो सके।