
छत्तीसगढ़। हसदेव का महत्व भारतीय वन्यजीव संस्थान (WII) की रिपोर्ट 2021 के अनुसार समृद्ध जैव विविधता के साथ 1,70,000 हेक्टेयर भूमि पर गोंड, लोहार, उरांव आदि का लगभग 10,000 आदिवासियों का निवास है। रिपोर्ट में पक्षियों की 82 प्रजातियां, लुप्तप्राय तितलियों की प्रजातियों और 167 प्रकार की वनस्पतियों को दर्ज किया गया है, जिनमें से 18 को 'खतरे' के रूप में लेबल किया गया है।
अरण्य में पहले से ही 23 कोयला खदान ब्लॉक शामिल हैं और 2009 में, पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने इसको नो-गो जोन के रूप में वर्गीकृत करने के लिए स्थानांतरित किया है। फिर भी, नो-गो जोन नीति को अंतिम रूप नहीं देने के कारण खनन परियोजना को मंजूरी मिल गई। इसके अलावा, WII रिपोर्ट (2021) में कहा गया है कि आदिवासी आय का लगभग 60-70 प्रतिशत वन आधारित संसाधनों से उत्पन्न होता है। इसलिए उनके विस्थापन और खराब पुनर्वास से आजीविका का नुकसान हो सकता है।
आदिवासियों का मानना है कि सरकारी योजना अवैध है, क्योंकि उनकी भूमि पर Panchayat Extension on Scheduled Area (PESA) Act 1996 के अनुसार उनकी सहमति के बिना आगे नहीं बढ़ना चाहिए। (PESA) अधिनियम किसी भी विकास से पहले ग्राम पंचायत की सहमति को प्राथमिकता मानता है। आदिवासियों का दावा है कि इस परियोजना के लिए दस्तावेजों पर उनकी सहमति जाली थी।
केंद्र कोयला उत्पादन बढ़ाने और इस गर्मी के दौरान घरेलू स्तर पर बढ़ती मांगों को पूरा करने के लिए नई खदानें शुरू करने का प्रयास कर रही है। वहीँ काम शुरू होने के बाद आदिवासियों का घर भी उजड़ रहा है। ये परियोजनाएं भारत के सबसे प्रमुख खनन निगमों को दी जा रही हैं, ठीक उसी तरह जैसे अडानी एंटरप्राइजेज को हसदेव कोयला खदान का प्रबंधन करने के लिए दिया गया है। आदिवासियों ने अभी भी उम्मीद नहीं खोई है। विरोध को जिंदा रखा गया है। वे कोशिश कर रहे हैं कि अधिकारियों को वन क्षेत्र को नष्ट न करने दें और खनन को भौतिक होने से रोकने के लिए 'नो-गो' की स्थिति को पुनः प्राप्त करें। हालांकि, सरकारी अधिकारियों ने आदिवासियों को परेशान करने के लिए उन्हें गिरफ्तार करने और शिकायत दर्ज करने के लिए कमर कस ली है।
Published on:
10 May 2022 05:25 pm
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