
आवेश तिवारी@रायपुर. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 14 अप्रैल को दल्ली-राजहरा से भानुप्रतापपुर के लिए नई ट्रेन को हरी झंडी दिखाएंगे। आजादी के तकऱीबन 71 साल बाद उत्तर बस्तर रेलवे लाइन से जुड़ेगा। बहुत कम लोगों को यह पता होगा कि एक वक्त था जब इन्ही जंगलों में ट्राम दौड़ा करती थी। ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1925-26 में रायपुर फारेस्ट ट्रामवे का निर्माण किया था। इससे लाखों रूपए का फायदा कमाया था।
अंग्रेज ट्राम सेवा का इस्तेमाल यात्रियों के आवागमन के साथ साथ लकड़ियों और कच्चे माल की ढूलाई के लिए भी किया करते थे।इस ट्राम सर्विस को चलाने वाली कंपनी गिलेंडर अर्बोथोट आज भी काम कर रही है जिस वक्त रायपुर फारेस्ट त्राम्वे बनी उस वक्त कंपनी का मुख्यालय कलकत्ता था।
1939 में सेन्ट्रल प्रॉविन्स और बरार डिविजन की अपनी आधिकारिक रिपोर्ट में ब्रिटिश सरकार ने लिखा है कि ट्राम सेवा ने केवल एक साल में 18 हजार यात्रियों ने यात्रा की है। वहीं 6 लाख 71 हजार गरों का परिवहन किया गया। वहीं 1940 में यात्रियों की संख्या 20 हजार तक पहुंच गई 1939 में रायपुर एक्सप्रेस ट्रामवे को 2.19 लाख रुपए तो 1940 में एक लाख 85 हजार रूपए का फायदा हुआ था।
अंग्रेजों को लगता था कि यह फायदा बेहद कम है। इस ट्रामवे में सबसे बड़ी समस्या ट्रैक पर पड़ने वाली भारी बोझ की थी अंग्रेज चाहते थे कि यात्री परिवहन की तुलना में माल की ढुलाई ज्यादा से ज्यादा हो।इसके लिए अंग्रेजों ने उपाय निकाला कि इस ट्रैक पर माल की ढुलाई बंगाल नागपुर लाइन के माध्यम से की जाए लेकिन यह योजना रंग न ला सकी।
105 किमी की दूरी तय करती थी ट्राम
अंग्रेजों द्वारा शुरू की गई ट्राम सेवा सबसे पहले कुरूद से बेसिन के बीच 105 किलोमीटर में शुरू की गई थी बाद में इसका और विस्तार किया गया। इस का पहला स्टेशन मेघा था। वहां से यह ट्राम लाइन दुगली, सकरा, नगरी, फरसिया, एलाव्ली, लिखमा तक चलती थी । अंग्रेजो की सोच थी इस ट्राम लाइन से मजदूरों को दूर दराज के जंगलों में ले जाकर उनसे काम कराया जा सकता है बहुत हद तक वो इसमें सफल भी हुए।
ट्रेक को बनाने के लिए दुगली में अंग्रेजों ने एक आरा मशीन भी लगा रखी थी जो भाप से चलती थी। इसी आरा मशीन पर लकड़ी के स्लीपर तैयार किए जाते थे। इस ट्राम लाइन की खासियत यह थी कि इसमें कहीं पुल पुलिया नहीं थे। अंग्रेजों ने ट्राम सेवा को चलाने के लिए हर 10 किमी की दूरी पर एक कुआं बना रखा था। रास्ते में पानी भरकर भाप पैदा की जाती थी जिससे फिर ट्राम आगे बढ़ती थी।
महारानी से की गई थी गुहार
19 नवंबर 1941 को भारी घाटा बताते हुए इस ट्राम सेवा से यात्री परिवहन पूरी तरह से बंद कर दिया गया। सभी स्टेशनों पर नोटिस बोर्ड चिपका दिया गया कि जो यात्री जिस ओर भी जाएंगे, उन्हें वापसी का टिकट नहीं मिलेगा। कर्मचारियों और बस्तर के आम आदिवासियों ने अंग्रेज सरकार से ट्राम सेवा को बंद न करने की अपील की थी। यहां तक कि महारानी एलिजाबेथ को भी चिट्ठी लिखी गई, लेकिन बात न बनी।
Updated on:
13 Apr 2018 11:42 am
Published on:
13 Apr 2018 10:17 am
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