
भिलाई के इस युवा ने मुंबई में बनाई अलग पहचान, नचा चुके हैं मिलेनियम स्टार अमिताभ बच्चन को
ताबीर हुसैन @ रायपुर.हर प्रदेश में तो ऐसा नहीं होता कि वहां लोग फि़ल्में बनाने की कोशिश कर रहे हों? तो इस किए जाने को भी स्वीकारा जाना चाहिए और उसे उसकी मुताबिक़ 'एप्रिशियेशन' भी मिलना चाहिए। तो सब के किये जाने को मैं 'एप्रिशिएट' करता हूं। उन सारे लोगों को जो यहां छत्तीसगढ़ में किसी भी तरीके से, कहीं भी, किसी भी समझ से, कैसे भी संसाधनों के साथ कैसा भी सिनेमा बनाने में लगे हुए हैं उनको मेरा सलाम है। यह कहना है कि डायरेक्टर और प्रोड्यूसर पंकज सुधीर मिश्रा का। बीते दिनों उन्होंने नया रायपुर में आयोजित आवाज-2018 में बतौर वक्ता शिरकत की थी। इस दौरान उन्होंने पत्रिका प्लस से अपने फिल्मी सफर, लेखन और क्रिएटिविटी आदि को लेकर काफी विस्तार से बात की। वे भिलाई के रहने वाले हैं और इन दिनों मुंबई में हैं।
इन दिनों आप क्या कर रहे हैं?
पिछले कुछ साल काम से भरे हुए बीते। बीती मई तक एक-साथ 2-3 काम हो रहे थे। मई में ही 2 शोज ख़त्म किए। उसके बाद से घूम रहा हूँ। पढ़ रहा हूँ। लोगों से मिल रहा हूँ। आगे क्या करना है, क्या करने में मज़ा आएगा सोच रहा हूँ। खुद को फिर से खोज रहा हूँ। साथ ही एक बड़ी वेब सिरीज़ को लेकर बात चल रही है एक बड़े ही नामचीन लेखक के नोवेल्स पर आधारित। अभी तक तो लगता है की मुझे डायरेक्ट करने में मज़ा आयेगा और मैं करूंगा। उसके अलावा मेरी कंपनी के कुछ नए शोज़ शुरू करने जा रही है। टी वी के लिए। उनके डीटेल्स अभी डिसक्लोज़ नहीं कर सकता, लेकिन वो डायरेक्ट करने का इरादा और मन नहीं है। सिर्फ उनके डिजाइन, लुक एंड फील को बेहतरीन बना पाने की जि़म्मेदारी निभा रहा हूँ। एक 'क्रिएटिव प्रोड्यूसर' के तौर पर।
कॉमेडी नाइट विद कपिल में जब अमिताभ बच्चन आए तो आप कैसा महसूस कर रहे थे?
एक वाक्य में कहूँ तो मैं डरा हुआ था। हालांकि प्रचलित हिन्दी सिनेमा में शायद ही ऐसा कोई स्टार या कोई एक्टर हो जिस के साथ पिछले 10 वर्षों में मैंने काम न किया हो, लेकिन मुझे कभी भी न तो डर लगा न ही मैंने कोई 'एक्साइटमेंट' महसूस किया। कभी-कभी किसी के साथ फ़ोटो खिचाने जैसा उत्साह भी नहीं रहा खुद से। लेकिन अमिताभ बच्चन के समय में मैं ठीक वैसा महसूस नहीं कर रहा था जैसा की अक्सर मैं अपने शूट पर करता हूँ। मैं ये तो नहीं कर सकता की मैं उनका बड़ा फैन रहा हूँ। हाँ उनके कुछ काम पसंद रहे हैं मुझे लेकिन मैंने कभी भी उनको बहुत ही अच्छा अभिनेता नहीं माना। लेकिन अमिताभ बच्चन हमारे देश में सिर्फ एक व्यक्ति नहीं रह गए हैं वो लगभग एक किंवदंती बन चुके हैं। वो प्रचलित सिनेमा का सब से बड़ा पर्याय बन चुके हैं। तो उनके साथ काम कर सकना शायद हर उस व्यक्ति के लिए सपना हो सकता है जो किसी भी तरह से छोटे या बड़े परदे की विधा से जुड़ा है। तो मैं बहुत ही 'एक्साइटेडÓ और डरा हुआ था। उन्हें कैसे बताउंगा की क्या करना है। कहीं मेरी किसी बात का बुरा मान गए तो? वगैरह वगैरह। वो अपने निश्चित समय से आधा घंटा पहले स्टूडियो पहुंच गए। अपनी पुरानी और छोटी सी पर्सनल 'वैनिटी वैन' में बुलाया और पूछा की मुझे क्या-क्या करना है। पूरे धैर्य के साथ सब कुछ सुना। फिर कहा की मुझे देवनागरी में पूरे एपिसोड की स्क्रिप्ट दे दीजिये। मैं एक बार पढ़ लूं तो उसके 20 मिनट बाद 'फ्लोरÓ पर आ जाऊंगा। हम देवनागरी स्क्रिप्ट के साथ तैयार थे क्योंकि हमें ये पता था की वे देवनागरी में ही स्क्रिप्ट पढ़ते हैं। हम बाहर निकल आए और एक बात 'वेनिटी वैनÓ में ब्रीफिंग के दौरान उन्हें बताने की हिम्मत नहीं हुई की उनके डांस से एपीसोड की शुरुआत होनी है। स्क्रिप्ट पढऩे के ठीक 15 मिनट बाद वो फ्लोर पर आ चुके थे। तब मैं बाकी के सब डांसर्स के साथ ओपनिंग की रिहर्सल करवा रहा था अपनी कैमरा टीम के साथ। उनके समय से पहले आने से थोड़ी अफरा-तफरी मच गई। एक निर्देशक के तौर पर ये मेरी जि़म्मेदारी थी की मैं उन्हें बताऊँ की डांस भी करना है और उन्हें तैयार करूँ मैंने झिझकते हुए उनसे कहा- 'सर ओपनिंग में एक डांस सीक्वेंक है।' उन्होंने कहा- कीजिये आप लोग। मैं यहीं बैठता हूँ' मैंने कहा- 'सर आप को करना है' उन्होंने कहा- 'वाह! तो मैं जा रहा हूँ' वो विंग्स तक चले गए। सब के होश फ़ाक्ता हो गए! अचानक पलट कर वापस आए और पूछा ब्रीफिंग के दौरान वैनिटी में क्यों नहीं बताया? मैंने कहा मैं डरा हुआ था आप से। उन्होंने 'हम्म' जैसा कुछ कहा और पूछा कौन सा गाना चुना है डांस के लिण्? मैंने कहा- आप की फिल्म डॉन का, अरे दीवानों मुझे पहचानों...वो मुस्कुराए और जोर से चिल्लाए। एक ही टेक दूंगा! रिहर्सल दिखाओ! थोड़ी देर के लिए सब जम गए फिर भाग-दौड़ मच गई। उन्होंने 2 बार पूरी रिहर्सल देखी पूरे धैर्य के साथ। और एक बार मोमेंट रिहर्सल की डांसर्स और मेरे कैमेरास के साथ, 'शेडो प्रेक्टिस' की तरह, फिर कहा- 'चलो टेक करते हैं। टेक हुआ तो ऐसा लगा कि 35 बार रिहर्सल कर के आए हैं। गाना ख़त्म हुआ। मैं चिल्लाया ओके! और कंट्रोल रूम से बाहर आया उनके पास। उन्होंने कहा- एक टेक और ले लो। मैंने कहा- अच्छा था सर। उन्होंने कहा- ले लो। आइ कैन डू बेटर। उन्होंने एक टेक और दिया। वाकई पहले से बेहतर था। उस दिन उनके साथ बिठाए हुए लगभग 10 घंटे मेरे लिए स्कूल की तरह थे। खूब सीखा के गए वे। लेकिन बता या जता के नहीं। बल्कि सिर्फ अपने काम और तौर तरीकों से। उस दिन मैंने जाना की बच्चन बच्चन क्यों हैं! वो बहुत अच्छे अभिनेता नहीं हैं लेकिन एक बहुत अच्छे और बहुत ज़्यादा बड़े स्टार हैं। बेहद मेहनती, फोकस्ड, अनुशाषित और प्रोफेशनल। एक बहुत बड़ा और ऊंचा पेड़ जो विनम्रता से झुका हुआ है।
क्रिएशन के लिए क्या जरूरी है?
क्रिएशन के लिए सब से पहले तो खुद को बचाए रखना जरूरी है। हम कला की यात्रा में अक्सर खुद को
बहुत जल्दी खो देते हैं। हम कोई और बन जाते हैं, कुछ और बन जाते हैं। हम 'इंस्पायर' होने की बजाय 'आस्पायर' होने लगते हैं। संस्कृत का शब्द है 'स्वभाव'। उसको हमने गौर से ठहरकर समझा नहीं है। हमें लगता है की अंग्रेज जिस चीज़ को किसी व्यक्ति का 'नेचर' कहते हैं उसी का हिन्दी तर्जुमा है 'स्वभाव'। लेकिन ठीक ऐसा नहीं है। 'स्व' और 'भाव' मिलकर बनता है शब्द स्वभाव। खुद का 'एक्सप्रेशन'! हमें अपना स्वभाव नहीं खोना चाहिए और कोई और बनने की कोशिश नही करनी चाहिए। हम वही हैं जो हमारा स्वभाव है। बाकी सब तो सब में एक जैसा है। उसके बाद ये जरूरी है की हम जीवन से जीवन को देखें ना की टीवी और सिनेमा से। अगर हम चीजों को उनकी मूलभूत उत्पत्ति से समझें और उसे चित्रित करने के लिए उसमें अपने स्वभाव को 'एप्लाई' करें तभी 'क्रिएशन' की संभावना बनती है, क्योंकि सृजन भीतर से होता है। बाहर तो सिर्फ उस सृजन का स्वप्न चल रहा है।
नौकर की कमीज से जुड़े अनुभव साझा करें
नौकर की कमीज में काम करना मेरे लिए किसी फि़ल्म में एक अभिनेता की तरह काम करना नही था बल्कि एल स्कूल में पढ़ाई करने की तरह था। मैने मणिजी को पहले ही कह दिया था की मेरी किसी फि़ल्म में अभिनेता के तौर पर काम करने में खास दिलचस्पी नही है बल्कि मैं आप को 'आसिस्ट' कर के सीखना चाहता हूं। उन्होंने कहा दोनों काम एक साथ करो। बस मेरा स्कूल शुरू हो गया! मैने शूटिंग के अलावा फि़ल्म बनने की सारी प्रक्रियाओं में हिस्सा लिया। कई बार 'क्लैप बॉय' का काम भी किया। कई महीने मणि कौल के साथ बिताए। वे बहुत अच्छे गुरु थे। मैंने न सिर्फ सिनेमा उन से सीखा बल्कि भारतीयता, दर्शन और अध्यात्म का सिरा भी उन्होंने पकड़ाया। इन सभी विषयों पर भी उनकी समझ अद्भुत थी। वे अक्सर ध्रुपद का रियाज़ भी करवाते थे और कमाल का खाना बना के भी खिलाते थे। जितने कमाल के गुरु थे मणि उतने कमाल का मैं शिष्य नहीं था, क्योंकि ध्रुपद और खाना बनाना मैं न सीख पाया। हाँ अच्छा संगीत सुन पाना और अच्छा एवं विविध खाना खाने का महत्व और खोज-खोज के अलग-अलग तरह का खाना खाना ज़रूर सीख पाया।
वेब सीरीज कल्चर से टीवी सीरियलों पर कोई फर्क पड़ेगा?
आप शायद 'ओटीटी प्लेटफ़ॉर्म' की तरफ इशारा कर रहे हैं। इसे 'डिजिटल टेलीवीजऩ' भी कहा जाता है। लेकिन सही तकनीकी भाषा में इसे 'ओटीटी प्लेटफ़ॉर्म' कहते हैं (ओवर द टॉप)। इसे आप को ऐसे समझना पड़ेगा की वेब या डिजिटल टेलीवीजन या 'ओटीटी प्लेटफ़ॉर्म' टेरेस्ट्रियल या सेटेलाइट टेलीवीजऩ का 'अगला पड़ाव' या 'अपग्रेड' है और ये अपग्रेड सिर्फ 'तकनीक' का नहीं है। समझ, संस्कृति, समय और सब से ज़्यादा बाज़ार का है। यहां मैं यह जरूर बता दूं के मेरे हिसाब से ये ज़रूरी नहीं है कि हर 'अपग्रेड' अच्छा ही हो कई बार अपग्रेड नए 'बग्स' भी लेकर आता है सिस्टम को 'क्रैशÓ भी करता है। खैर अच्छा है या बुरा के मुद्दे पर बात करने के लिए बहुत सारा वक्त और स्पेस चाहिए। इसलिए वो हम कभी और करेंगे। ये ज़रूर कहूंगा की 'डिजिटल प्लेटफॉर्म'या 'ओटीटी प्लेटफ़ॉर्म' जल्द ही टेलीवीजन को व्यापक स्तर पर खत्म कर देंगे। जैसे कभी टीवी ने रेडियो को किया था। बाज़ार की ज़रूरत के लिए उपजी नई संभावनाएं हमेशा पिछली के अस्तित्व पर पैर रख कर खड़ी होती हैं और ये दुखद तो होता है। 'ओटीटी प्लेटफ़ॉर्मस' के आने से टीवी अपने अंत की ओर है और जो चीज़ अपने अंत की ओर बढ़ती है अक्सर उसके विकार भी बढऩे लगते हैं। टीवी और 'रिप्रेस्सिव' और 'रेग्रेसिव' होता जाएगा, होता जा रहा है।
आप छत्तीसगढ़ से हैं, यहां फिल्म विकास बोर्ड का गठन किया गया है, आप का क्या सोचना है इस बारे में?
मैं सकारात्मक हूँ और उन लोगों को साधुवाद एवं शुभकामनाएं देता हूँ जिन्होंने यह बीड़ा उठाया और उसे साकार किया। आशा करता हूँ की छत्तीसगढ़ फिल्म विकास निगम का विकास हो और उसके ज़रिये यहां के फि़ल्मकारों का भी। मैं चाहता हूँ कि छत्तीसगढ़ का फिल्म विकास निगम यहां के सिनेमा और सिनेमागरों के लिए सही प्रशिक्षण की सुविधाएं मुहैय्या करवाये और सही तकनीकी सामान उपलब्ध करवाए। यहां हर तरह का सिनेमा बने और चले ऐसी कामना करता हूँ। हम सब लोग जो किसी भी कारण से अपनी ज़मीन से बाहर आकर काम कर रहे हैं या करने को मजबूर हैं, हम सब आप लोगों के साथ हैं हमेशा। बाकी बोर्ड और निगम से कुछ होगा कि नहीं वो इस बात पर निर्भर करता है की उनमे बैठा कौन है और उन लोगों की सिनेमा और समाज को लेकर समझ क्या है? उनके इरादे क्या हैं? और चूंकि छत्तीसगढ़ में इसके बनने की प्रक्रिया कितनी 'ऑर्गेनिकÓ है और उसमें शामिल लोग कौन हैं और कितने ज़हनी हैं ये सब मैं नहीं जानता।
आप को यहां के फिल्मकारों में क्या कमी नजर आती है?
पहली बात ये की हर प्रदेश में तो ऐसा नहीं होता कि वहां लोग फि़ल्में बनाने की कोशिश कर रहे हों? तो इस किये जाने को भी स्वीकारा जाना चाहिए और उसे उसकी मुताबिक़ 'एप्रिशियेशन' भी मिलना चाहिए। तो सब के किये जाने को मैं 'एप्रिशिएट' करता हूं। उन सारे लोगों को जो यहां छत्तीसगढ़ में किसी भी तरीके से, कहीं भी, किसी भी समझ से, कैसे भी संसाधनों के साथ कैसा भी सिनेमा बनाने में लगे हुए हैं उनको मेरा सलाम है। आप सब मेरे प्रिय साथी हैं। रही यहाँ के फिल्मकारों की कमी की बात, तो ऐसा तो नहीं है कि मैं उन लोगों से कुछ ज़्यादा जानता हूं कि उनकी कमियाँ गिना सकूँ, और ना ही एक दर्शक के तौर पर मैंने यहां बन रही ज़्यादा फि़ल्में देखी हैं लेकिन जो कुछ भी मैंने देखा है और उसके आधार पर जो कुछ भी मैं कहने जा रहा हूँ वो मेरा खुद से संवाद है। खुद का खुद के प्रति 'क्रिटिसिज्म' कह लें आप। मुझे ऐसा लगता है की हम अभी भी यहाँ ज़्यादातर समय सिनेमा का सिनेमा बन रहे हैं। कभी किसी बम्बइया फि़ल्म की तजऱ् पर, तो कभी तेलगू, कभी तमिल कभी शायद किसी अंग्रेज़ी फिल्म की तरह दिखने की खूब मेहनत के साथ कोशिश! हम पहले नाटक को कैमरे से 'रिकॉर्ड' करने को सिनेमा मान रहे थे। अब किसी बम्बइया, भोजपुरी, तमिल, तेलगू फिल्म को छत्तीसगढ़ी में। और जो बहुत ऊंचा सोचा भी तो छत्तीसगढ़ी पहचान के नाम पर किसी लोक-कथा को उठा लिया। लेकिन तब ये नहीं पता की कथा में सिनेमा कैसे एप्लाई हो! तो उसको एकदम नाटक की तरह 'कैप्चर' कर लिया और सोचा की अच्छा सिनेमा बना लिया है! इसका मतलब कहीं ये तो नहीं है कि मैं अपनी छत्तीसगढ़ी पहचान से व्यथित हूँ? और अपने होने में हीनभावना से ग्रसित हूँ? मुझे बताइये ईश्वर क्या है? क्या वो कोई मूर्ति, किन्ही ख़ास कपड़ों, कोई रंग, कोई ईमारत, कोई भाषा में होता है? नहीं न? वो इन सब के बगैर भी ईश्वर है। और शायद इन सब के बगैर ही! वैसे ही सिनेमा में क्षेत्रीयता को सिर्फ भाषा, कपड़ों और लोक-कथाओं से नहीं उकेरा जा सकता है। बल्कि ऐसे कहूं की कोई फिल्म छत्तीसगढ़ी भाषा में ना हो के भी छत्तीसगढ़ की हो सकती है। तीजनबाई हिन्दी में भी पंडवानी गाएंगी तो वह उतनी ही ठेठ छत्तीसगढ़ी पंडवानी रहेगी! क्योंकि क्षेत्रीयता आत्मा है! उसे पकडऩा मुझे सीखना पड़ेगा। और आत्मा की भाषा शब्दों की भाषा नहीं होती। मैं ये भी बता दूं की मैं क्यों क्षेत्रीयता पर इतना जोर दे रहा हूँ.क्योंकि छत्तीसगढ़ी सिनेमा के लिए आगे बढऩे का वही एक-मात्र रास्ता है। हॉलीवुड या बम्बई या मद्रास जैसी दिखने वाली और कहानियां कहने वाली फिल्म या कई फुट गाडिय़ां हवा में उछालने वाली पहली फिल्म या विदेशों में शूट होने वाली पहली फिल्म या आठ देशों में एक साथ रिलीज़ होने वाली पहली फिल्म या किसी ख़ास कैमरे से शूट होने वाली पहली फिल्म आदि आदि आदि फि़ल्में बनाने से हमारी पहचान नहीं बनेगी। दुनिया भर में नजऱ घुमा कर देख लीजिये। अच्छा सिनेमा ज़्यादातर क्षेत्रीय ही रहा है। सालभर में जितनी अंग्रेज़ी फि़ल्में आती हैं हमें लगता है की वो सारी 'हॉलीवुड' की फि़ल्में हैं। लेकिन ऐसा नहीं है। उसका बहुत बड़ा हिस्सा 'हॉलीवुड' के बाहर से आता है। वो फि़ल्में अंग्रेज़ी में ज़रूर हैं लेकिन 'हॉलीवुड' की नहीं हैं। भारत की ही बात कर लें तो सार्थक सिनेमा का सब से बड़ा हिस्सा क्षेत्रीय सिनेमा ने दिया है हमें. सबसे सामयिक उदहारण है मराठी सिनेमा मराठी भी है और व्यावसायिक रूप से सफल भी। यहां अभी हम अपनी क्षेत्रीयता को एक दुकान की तरह स्तेमाल करने की कोशिश कर रहे हैं। दूकान एक भौतिक और स्थाई इकाई है। वो कभी ग्लोबल नहीं हो सकती लेकिन छत्तीसगढ़ी सिनेमा में जब ऐसे लोग आएंगे जो क्षेत्रीयता को किसी दुकान की तरह नहीं बल्कि एक ब्रांड की तरह निर्मित करेंगे तब हमारा सिनेमा भी परिष्कृत होगा। क्योंकि ब्रांड एक दार्शनिक इकाई हैं कहीं का भी हो इस से फर्क नहीं पड़ता। वो ग्लोबल बन सकता है। दूकान नहीं। और ऐसा नहीं है की कोशिश नहीं की गई है। 'ब्लैक एंड वाइट' के दौर में तो बनी ही थीं 1-2 फि़ल्में और अभी के समय में योगेन्द्र चौबे और मनोज वर्मा ने कोशिश की है और भी कई लोगों ने की होंगी जिनके बारे में मैं शायद जानता ना होऊं। तमाम विधाओं के लोग मिलकर काम करें तो फर्क पड़ेगा। रायपुर इंटरनेशन फि़ल्म फेस्टिवल जैसी पहल से फर्क पड़ेगा। सुना है की बहुत से नौजवान फेस्टिवल में देखी गई फिल्मों से प्रेरित होकर शार्ट फि़ल्में बना रहे हैं। कोशिश हो रही है, कोशिश करने वाले तमाम लोगों का मैं अभिवादन करता हूँ। ज़रूरी है की कोशिश जारी रहे।
Published on:
01 Sept 2018 12:18 am
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