19 दिसंबर 2025,

शुक्रवार

Patrika LogoSwitch to English
home_icon

मेरी खबर

icon

प्लस

video_icon

शॉर्ट्स

epaper_icon

ई-पेपर

फर्क है तब की और अब की दोस्ती में

एक पुराना जमाना था, जब दो लोगों के बीच दूरी ज्यादा होती थी और उनके दिलों के बीच की दूरी कम।

2 min read
Google source verification

image

Amanpreet Kaur

Nov 10, 2017

seoni

friendship

एक पुराना जमाना था, जब दो लोगों के बीच दूरी ज्यादा होती थी और उनके दिलों के बीच की दूरी कम। आज बगल में बैठे शख्स के बारे में भी हम अक्सर बहुत कम जान पाते हैं, क्योंकि सोशल साइट्स में व्यस्त रहते हैं। कितना फर्क है तब की और अब की दोस्ती में? इस पर अपने विचार पेश कर रही हैं झांसी की सौम्या वर्मा...

मेरी सहेली शिवानी मेरे घर आई हुई थी। हम दोनों बड़े दिनों के बाद मिले थे। हम दोनों सहेलियां हंसी-ठिठोली में मग्न थीं। हम फुर्सत से बैठकर कुछ भूले-बिसरे किस्सों को याद कर रहे थे। पुरानी बातें याद करके एक-दूसरे को छेड़ रहे थे। हमारे पास एक से बढक़र एक किस्से थे, जिन्हें याद कर हमें बहुत अच्छा महसूस हो रहा था। शिवानी ने मुझसे पूछा- याद है सौम्या, हम कैसे स्कूल में लास्ट बेंच पर बैठ कर शैतानियां किया करते थे? टीचर की नजर बचाकर लंच से पहले ही खाना खा जाया करते थे।

तभी मम्मी ने कमरे में प्रवेश किया और बोलीं- अरे, मैंने और रेनू ने भी बहुत शैतानियां की हैं अपने जमाने में! हमारी तो घर पर खूब डांट भी पड़ा करती थी...वो दिन भी क्या दिन थे! मम्मी चाय का कप शिवानी के हाथ में थमाते हुए मानो उन सुनहरी यादों में ही खो गईं। शिवानी के मन में जिज्ञासा पैदा हो गई थी। उसने पूछा, आंटी, रेनू कौन? मम्मी ने खुश होकर बताया- मेरी सबसे अच्छी सहेली, मेरी सबसे खास!

रेनू का नाम लेते हुए मम्मी की चमकती आंखें और चेहरे पर बड़ी-सी मुस्कान को देखकर मुझसे भी रहा न गया, तो मैंने भी पूछ ही लिया- मम्मी, पहले तो आपने कभी नहीं बताया इनके बारे में, मैं तो कभी नहीं मिली रेनू आंटी से।। मम्मी बोलीं- अब तुम कहां से मिलोगी बेटा? शादी के बाद तो मैं खुद नहीं मिली उससे। 19-20 साल हो गए होंगे।

थोड़ी देर बाद मम्मी अंदर जा चुकी थीं और शिवानी अपने घर। लेकिन मैं अब भी सोच रही थी कि आज दोस्ती क्या है फेसबुक और इंस्टाग्राम के इस जमाने में? जहां दूर देश के और अनजान लोगों को हम पट से दोस्त बना लेते हैं और सबसे कहते हैं कि सोशल मीडिया पर हमारे इतने फ्रेंड्स हैं। लेकिन क्या ऐसी दोस्ती के मतलब सच में उतने संजीदा हैं, जैसे कि पहले हुआ करते थे? जैसे इतने सालों बाद भी मेरी मम्मी की आंखों में अपनी दोस्ती को याद करके नमी आ गई, क्या आज की चट-पट वाली दोस्ती में भी इतनी संवेदना है? क्या वैसे ही जज्बात हैं?

आज हमारे पास इंटरनेट और सोशल साइट्स जैसे जादुई साधन हैं, जिनसे हम दूर हो चुके अपने पुराने दोस्तों से बात कर सकते हैं। हमारे माता-पिता के पास ये सब नहीं था, पर रिश्ते तो तब भी थे और शायद आज से कहीं बेहतर भी थे। सोशल साइट्स से हम लोगों से जुड़ तो जाते हैं, पर दिल से बहुत कम जुड़ पाते हैं। यही कारण है कि रिश्तों में खटास पहले से ज्यादा दिखने लगी है आजकल। क्यों न जो पास है, उसे भी उतना ही देखा जाए और उस पर भी उतना ही ध्यान दिया जाए? अर्थपूर्ण रिश्तों को सहेजने के लिए कोशिश तो बनती है। दोस्तों की संख्या महत्व नहीं रखती। असली सवाल तो यह है कि हमारे सच्चे दोस्त कितने हैं?