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जिसने प्रेम किया है, वही विरह और मिलन के सच को जान सकता है : डॉ. प्रणव पंड्या

प्रेम का पहला अनुभव विरह में होता है और इस अनुभव की पूर्णता मिलन में आती है

Feb 06, 2020 / 05:08 pm

Shyam

जिसने प्रेम किया है, वही विरह और मिलन के सच को जान सकता है : डॉ. प्रणव पंड्या

जिसने प्रेम किया है, वही विरह और मिलन के सच को जान सकता है : डॉ. प्रणव पंड्या

प्रेम के दो पहलू हैं – विरह और मिलन। जिसने प्रेम किया है, वही इस सच को जान सकता है। प्रेम सद्गुरु से हो तो यह सच और भी सघन हो जाता है। प्रेम का पहला अनुभव विरह में होता है और इस अनुभव की पूर्णता मिलन में आती है। विरह न हो तो मिलन कभी होता ही नहीं है। ऐसे में सद्गुरु मिल भी जाय तो उनकी पहचान ही नहीं हो पाती। उन्हें अपने जैसा मनुष्य समझने का भ्रम बना रहता है। उनके अस्तित्व में व्याप्त गुरुतत्त्व से परिचय-पहचान और उसमें अपने व्यक्तित्व का समर्पण-विसर्जन-विलय नहीं बन पड़ता।

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विरह में व्यक्तित्व पकता है- उसमें जन्म होता है साधक का, भक्त का और शिष्य का। इस अवस्था में चुभते हैं अनेक प्रश्न कंटक, होती हैं अनगिन परीक्षाएं, तब आती है मिलन की उपलब्धि। सच यही है कि विरह तैयारी है और मिलन उपलब्धि। आंसुओं से रास्ते को पाटना पड़ता है तभी मिलता है सद्गुरु के मन्दिर का द्वार। रो-रोकर काटनी पड़ती है विरह की लम्बी रात, तभी आती है मिलन की सुबह। जिसकी आंखें जितनी ज्यादा रोती हैं, उसकी सुबह उतनी ही ताजा होती है। जितने आंसू बहे होते हैं, उतने ही सुन्दर सूरज का जन्म होता है।

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शिष्य के विरह पर निर्भर है कि उसका सद्गुरु मिलन कितना प्रीतिकर, कितना गहन और कितना गम्भीर होगा। जो आसानी से मिलता है, वह आसानी से बिछुड़ता भी है। मिलकर कभी भी न बिछुड़ने वाले सद्गुरु बहुत रोने के बाद ही मिलते हैं। और आंसू भी साधारण आंसू नहीं, हृदय ही जैसे पिघल-पिघल कर आंसुओं में बहता है। जैसे रक्त आंसू बन जाता है, जैसे प्राण ही आंसू बन जाते हैं।

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विरह अवस्था है पुकार की। शिष्य को भरोसा है कि सद्गुरु हैं तो अवश्य, पर न जाने क्यों दीख नहीं रहे। विरह का अर्थ है कि हम तुम्हें तलाशेंगे। कितनी ही हो कठिन यात्रा, कितनी ही दुर्गम क्यों न हो, हम सब दाँव पर लगाएँगे, मगर तुमसे मिलकर ही रहेंगे, शिष्य का हृदय चीत्कार कर हर पल यही कहता है, तुम जो अदृश्य हो तुम्हें दृश्य बनना ही होगा। तुम जो दूर स्पर्श के पार हो, तुमसे आलिंगन करना ही होगा।

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अदृश्य हो चुके अपने सद्गुरु से आलिंगन की आकांक्षा, उनके अदृश्य रूप को अपनी आंखों में भर लेने की आकांक्षा विरह है। शिष्य के लिए इसमें कड़ी अग्नि परीक्षाएं हैं। उसे गलना, जलना और मिटना पड़ता है। जिस दिन राख-राख हो जाता है उसका अस्तित्त्व, उस दिन उसी राख से सद्गुरु का मिलन प्रारम्भ हो जाता है और तभी आती है सद्गुरु प्रेम की पूर्णता।

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