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एक ही शरीर में भले-बुरे व्यक्तित्व शान्ति, सहयोग पूर्वक नहीं रह सकते : आचार्य श्रीराम शर्मा

locationभोपालPublished: Jan 02, 2020 06:04:43 pm

Submitted by:

Shyam

एक ही शरीर में भले-बुरे व्यक्तित्व शान्ति सहयोग पूर्वक नहीं रह सकते : आचार्य श्रीराम शर्मा

एक ही शरीर में भले-बुरे व्यक्तित्व शान्ति, सहयोग पूर्वक नहीं रह सकते : आचार्य श्रीराम शर्मा

एक ही शरीर में भले-बुरे व्यक्तित्व शान्ति, सहयोग पूर्वक नहीं रह सकते : आचार्य श्रीराम शर्मा

कर्म फलित होने में देर लगाते हैं, जौ बोने के दस दिन में ही उनके अंकुर छः इंच ऊंचे उग आते हैं। किन्तु जिनका जीवन लम्बा है, जो चिर स्थायी है, उनके बढ़ने और प्रौढ़ होने में देर लगती है। नारियल की गुठली बो देने पर भी एक वर्ष में अंकुर फोड़ती है और वर्षों में धीरे धीरे बढ़ती है। बरगद का वृक्ष भी देर लगाता है। जबकि एरंड का पेड़ कुछ ही महीनों में छाया और फल देने लगता है। हाथी जैसे दीर्घजीवी पशु, गिद्ध जैसे पक्षी, ह्वेल जैसे जलचर अपना बचपन बहुत दिन में पूरा करते हैं। मक्खी, मच्छरों का बचपन और यौवन बहुत जल्दी आता है, पर वे मरते भी उतने ही जल्दी है।

 

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शारीरिक और मानसिक परिश्रम का, आहार-विहार का, व्यवहार शिष्टाचार का प्रतिफल हाथों-हाथ मिलता रहता है। उनकी उपलब्धि सामयिक होती हैं, चिरस्थायी नहीं। स्थायित्व नैतिक कृत्यों में होता है, उनके साथ भाव-संवेदनाएं और आस्थाएँ जुड़ी होती हैं। जड़ें अन्तरंग की गहराई में धंसी रहती हैं, इसलिए उनके भले या बुरे प्रतिफल भी देर में मिलते हैं और लम्बी अवधि तक ठहरते हैं, इन कर्मों के फलित होने में प्रायः जन्म-जन्मान्तरों जितना समय लग जाता है।

 

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अन्तःकरण की संरचना दैवी तत्वों से हुई हैं। उसमें स्नेह-सौजन्य सद्भाव सच्चाई जैसी प्रवृत्तियां ही भरी पड़ी हैं। जीवन यापन की रीति उत्कृष्टता के आधार पर बनाने की प्रेरणा इस क्षेत्र में अनायास ही मिली रहती है। इस क्षेत्र में जब निकृष्टता प्रवेश करती हैं, तो सहज उसकी प्रतिक्रिया होती हैं। रक्त में जब बाहरी विजातीय तत्व प्रवेश करते हैं तो श्वेत कण उन्हें मार भगाने के लिए प्राणपण से संघर्ष छेड़ते हैं और परास्त करने में कुछ उठा नहीं रखते। ठीक इसी प्रकार अन्तःकरण की दैवी चेतना आसुरी दुष्प्रवृत्तियों को जीवन सत्ता में प्रवेश करने और जड़ जमाने की छूट नहीं देना चाहती। फलतः दोनों के बीच संघर्ष छिड़ जाता है। यही अन्तर्द्वन्द्व है, जिसके रहते आन्तरिक जीवन उद्विग्न अशान्त ही बना रहता है और उस विक्षोभ की अनेक दुःखदायी प्रतिक्रिया फूट-फूटकर बाहर आती रहती है।

 

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दो सांड़ लड़ते हैं, तो लड़ाई की जगह को तहस-नहस करके रख देते हैं। खेत में लड़ें तो समझना चाहिए कि उतनी फसल चौपट ही हो गई। दुष्प्रवृत्तियां जब भी जहां भी अवसर पाती हैं वहीं घुसपैठ करने, जड़ जमाने में चूकती नहीं। घुन की तरह मनुष्य को खोखली करती है और चिनगारी की तरह चुप-चुप सुलगती हुई अन्त में सर्वनाशी ज्वाला बनकर प्रकट होती हैं। ठीक इसी प्रकार दुष्प्रवृत्तियाँ आत्मसत्ता पर आधिपत्य जमाने के लिए कुचक्र रचती रहती हैं, किन्तु अन्तरात्मा को यह स्थिति सह्य नहीं, अस्तु वह विरोध पर अड़ी रहती है। फलतः संघर्ष चलता ही रहता है और उसके दुष्परिणाम अनेकानेक शोक सन्तापों के रूप में सामने आते रहते हैं। मनोविज्ञानी इस स्थिति को दो व्यक्तित्व कहते हैं।

 

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एक ही शरीर में भले-बुरे व्यक्तित्व शान्ति सहयोग पूर्वक रह नहीं सकते। कुत्ते-बिल्ली की, सांप-नेवले की दोस्ती कैसे निभे? एक म्यान में दो तलवार ठूंसने पर म्यान फटेगी ही। शरीर में ज्वर या भूत घुस पड़े तो कैसी दुर्दशा होती है, इसे सभी जानते हैं। नशेबाजों की दयनीय स्थिति देखते ही बनती हैं। यह परस्पर विरोधी शक्तियों का एक स्थान पर जमा होना ही हैं, जिसमें विग्रह की स्वाभाविकता टाली नहीं जा सकती।

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