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दस दिशाओं और उनके दिग्पाल को ऐसे पहचानें, जानें दिशाओं का महत्व

Published: Nov 13, 2022 01:32:11 pm

– दस दिशाएं और उनके दिग्पालों विषय में विस्तार से जानें

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सनातन धर्म व वास्तु में मुख्यत: 10 दिशाओं का उल्लेख मिलता हैं। लेकिन सामान्यत: हम 4 दिशाओं को ही जानते हैंं, जो पूर्व, पश्चिम, उत्तर व दक्षिण हैं। वहीं वैज्ञानिक और वास्तु की दृष्टि से ४ और दिशाएं है जो इन चारों दिशाओं के मिलान बिंदु पर होती हैं। ये उत्तरपूर्व (ईशान), दक्षिणपूर्व (आग्नेय), उत्तरपश्चिम (वायव्य) एवं दक्षिणपश्चिम (नैऋत्य) हैं। लेकिन कई बार जानकारी नहीं होने के चलते वर्तमान में लोग चार दिशाओं की जगह दस दिशाओं के बारे मे सुनते ही अचंभे में पड़ जाते हैं।

दरअसल हिन्दू धर्म विश्व का प्राचीनतम धर्म माना जाता है। इसे ’वैदिक सनातन वर्णाश्रम धर्म’ भी कहते हैं जिसका अर्थ है कि इसकी उत्पत्ति मानव की उत्पत्ति से भी पहले से है। हिन्दू धर्म में कई मान्यताएं व नियम है। हिन्दू धर्म केवल एक धर्म या सम्प्रदाय ही नहीं है अपितु जीवन का जीने की एक पद्धति है। ऐसे में इसमें कुल 11 दशाओं के बारे में बताया गया है, जिसमें मुख्य रूप से दस दिशाएं व उनके दिग्पालों का भी वर्णन मिलता है।

जहां तक पूर्व, पश्चिम, उत्तर व दक्षिण के अलावा उत्तरपूर्व (ईशान), दक्षिणपूर्व (आग्नेय), उत्तरपश्चिम (वायव्य) और दक्षिणपश्चिम (नैऋत्य) दिशाओं की बात करें तो इस प्रकार यह 8 दिशाएं होती हैं, जो सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं। लेकिन, इसके अलावा उर्ध्व (आकाश) और अधो (पाताल) को भी दो दिशाएं माना गया है। ऐसे में दिशाओं की संख्या 10 हो जाती है। वहीं जहां हमारी वर्तमान स्थिति होती है उसे मध्य दिशा कहते हैं। इस प्रकार कुल दिशाओं की कुल संख्या 11 होती है। किन्तु 11 में से 10, उनमें से 8 और उनमें से भी 4 दिशाओं का विशेष महत्त्व माना गया है।
पुराणों के अनुसार सृष्टि के आरम्भ से पहले जब ब्रह्मा तपस्या से उठे और उन्होंने सृष्टि की रचना का विचार किया तब उनके कर्णों से 10 कन्याओं की उत्पत्ति हुई। इनमें से 6 मुख्य व 4 गौण कन्याएं थीं। उन सभी कन्याओं ने परमपिता को प्रणाम किया और उनसे याचना की कि वे उनके रहने का स्थान निश्चित करें और उन्हें योग्य जीवनसाथी भी प्रदान करें।

तब ब्रह्मदेव ने कहा कि वे जिधर भी जाना चाहें वहां जा सकती हैं। वही उनका निवास स्थान होगा। साथ ही उन्होंने ये भी कहा कि अभी सृष्टि का आरम्भ नहीं हुआ है इसी कारण कुछ समय बाद वे उन सब के लिए योग्य पति की भी सृष्टि करेंगे। ऐसा सुनकर वे सभी कन्यायें अलग-अलग स्थानों पर चली गयीं और उससे ही वे स्थान “दिशाएं” कहलायी।

10 कन्याएं :
1. पूर्वा: जो पूर्व दिशा कहलाई।
2. आग्नेयी: जो आग्नेय दिशा कहलाई।
3. दक्षिणा: जो दक्षिण दिशा कहलाई।
4. नैऋती: जो नैऋत्य दिशा कहलाई।
5. पश्चिमा: जो पश्चिम दिशा कहलाई।
6. वायवी: जो वायव्य दिशा कहलाई।
7. उत्तरा: जो उत्तर दिशा कहलाई।
8. ऐशानी: जो ईशान दिशा कहलाई।
9. ऊर्ध्वा: जो उर्ध्व दिशा कहलाई।
10. अधस्: जो अधो दिशा कहलाई।

उसके पश्चात ब्रह्मदेव ने आठ दिशाओं के लिए 8 देवताओं का निर्माण किया और उन कन्याओं को पति के रूप में समर्पित किया। ब्रह्मदेव ने उन सभी को “दिग्पाल” (दिक्पाल) की संज्ञा दी जिसका अर्थ होता है दिशाओं के पालक। ये आठ दिक्पाल हैं:
: पूर्व के इंद्र
: आग्नेय के अग्नि
: दक्षिण के यम
: नैऋत्य के सूर्य
: पश्चिम के वरुण
: वायव्य के वायु
: उत्तर के कुबेर
: ईशान के सोम

अन्य दो दिशाओं अर्थात उर्ध्व (आकाश) में ब्रह्मदेव स्वयं चले गए और अधो (पाताल) में उन्होंने अनंत (शेषनाग) को प्रतिष्ठित किया। इस प्रकार सभी 10 दिशाओं को उनके दिक्पाल मिले। यहां पर एक बात ध्यान देने वाली है कि अधिकतर ग्रंथों में ईशान दिशा के स्वामी भगवान शिव और अधो दिशा के स्वामी भगवान विष्णु माने जाते हैं। चलिए इनके विषय में विस्तार से जानते हैं।

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1. पूर्व: जो हमें जीवन देते हैं वो भगवान सूर्यनारायण पूर्व दिशा से ही निकलते हैं। इसी कारण इसका महत्त्व बहुत अधिक है। पूर्व और ईशान दिशा का भी सम्बन्ध होता है। जब सूर्य उत्तरायण में होता है तो वो पूर्व नहीं बल्कि ईशान दिशा से ही निकलता है। ये समय अत्यंत ही शुभ माना जाता है। यही कारण है कि शरशैया पर होने के बाद भी पितामह भीष्म अपने शरीर को त्यागने के लिए सूर्य के उत्तरायण होने की प्रतीक्षा करते रहे। इस दिशा के दिक्पाल इंद्र और स्वामी सूर्य हैं। ये दिशा पितृस्थान भी माना जाता है। वास्तु के अनुसार पूर्व दिशा खुला-खुला होना चाहिए। अगर उस स्थान पर खिड़की हो जिससे सूर्योदय को देखा जा सके तो उससे अच्छा कुछ नहीं। पूर्व की ओर मुख्यद्वार होना भी बहुत शुभ माना जाता है। इस दिशा में बुजुर्गों का कमरा नहीं होना चाहिए और ना ही यहाँ सीढियाँ नहीं बनानी चाहिए।
दिशा: पूर्वा
दिक्पाल: इंद्र
मंत्र: ॐ लं इन्द्राय नमः
अस्त्र: वज्र
पत्नी: शची
ग्रह: सूर्य
देवी: सूर्या

2. आग्नेय: दक्षिण और पूर्व दिशा जहां मिलती हैं उसे आग्नेय कोण कहते हैं। देव अग्नि इस दिशा के दिक्पाल हैं और शुक्र ग्रह इसके स्वामी हैं। वास्तु के अनुसार अगर आपके घर में रसोई आग्नेय कोण में हो तो वो सर्वोत्तम है। इससे घर में कभी धन-धान्य की कमी नहीं होती है। अपने घर के इलेक्ट्रॉनिक उपकरण भी आप इस कोण में रख सकते हैं। इस दिशा में आपके सोने का कमरा या बच्चों की पढाई का स्थान नहीं होना चाहिए। घर का मुख्यद्वार भी कभी इस दिशा में ना बनायें। ऐसा करने से घर में कलह बढ़ता है सदस्यों को स्वस्थ सम्बन्धी समस्याएं भी होती हैं।
दिशा: आग्नेयी
दिक्पाल: अग्नि
मंत्र: ॐ अं अग्नेयाय नमः
अस्त्र: दंड
पत्नी: स्वाहा
ग्रह: शुक्र
देवी: शुक्रा

3. दक्षिण: इस दिशा के दिक्पाल सूर्यपुत्र यम हैं और इसके स्वामी मंगल ग्रह है। ये दिशा बहुत पवित्र मानी जाती है और अगर वास्तु के अनुसार इस दिशा का निर्माण किया जाये तो परिवार में सुख और सम्पन्नता बढ़ती है और मनुष्य प्रसिद्धि और समृद्धि प्राप्त करता है। इस दिशा में घर का मुख्य द्वार नहीं होना चाहिए और कोई भी भारी सामान इसी दिशा में रखना चाहिए। ये स्थान कभी खाली भी नहीं छोड़ना चाहिए। वास्तु अनुसार इस दिशा को सुसज्जित रखने से यम और मंगल दोनों प्रसन्न होते हैं और मनुष्य की कभी अकालमृत्यु नहीं होती।
दिशा: दक्षिणा
दिक्पाल: यम
मंत्र: ॐ मं यमाय नमः
अस्त्र: पाश
पत्नी: धूमोर्णा
ग्रह: मंगल
देवी: मंगला

4. नैऋत्य: दक्षिण और पश्चिम दिशा के मध्य के स्थान को नैऋत्य कहा गया है। यह दिशा सूर्यदेव के आधिपत्य में है और इस दिशा के स्वामी राहु हैं। शिवानी देवी इस दिशा की अधिष्ठात्री हैं। इस दिशा में पृथ्वी तत्व प्रमुख रूप से विद्यमान रहता है इसी कारण घर की भारी वस्तुएं इस दिशा में रखनी जाहिए। इस दिशा में जल तत्व को रखने की मनाही है। अर्थात इस दिशा में कुआं, बोरिंग, गड्ढे इत्यादि नहीं होना चाहिए। सूर्यदेव के संरक्षण में होने के कारण इस दिशा को वास्तु के अनुसार सही रखने पर जीवन में सफलता प्राप्त होती है।
दिशा: नैऋती
दिक्पाल: सूर्य
मंत्र: ॐ सं सूर्याय नमः
अस्त्र: दंड
पत्नी: छाया
ग्रह: राहु
देवी: शिवानी

5. पश्चिम: ये दिशा पूर्व दिशा की विरोधाभासी दिशा है। जहां भगवान सूर्यनारायण पूर्व से प्रकट होते हैं, वही पश्चिम में अस्त होते हैं। ये दिशा वरुणदेव के संरक्षण में है और शनिदेव इस दिशा के स्वामी है। ये दिशा प्रसिद्धि, भाग्य और ख्याति की प्रतीक है। इस दिशा को वास्तु के अनुसार अनुकूल रखने पर मनुष्य पर शनि की कुदृष्टि नहीं पड़ती है। वास्तु के अनुसार इस दिशा में घर का मुख्‍य द्वार होना चाहिए। साथ ही वो द्वार सदैव स्वच्छ रखना चाहिए। अगर द्वार में किसी प्रकार की दरार हो तो उसे तुरंत बदल दें। मुख्य द्वार पर किसी भी प्रकार के रंग का उपयोग किया जा सकता है किन्तु गहरा रंग विशेष फल देता है। इस दिशा में मुख्य शयनकक्ष, शौच इत्यादि नहीं होना चाहिए। ये स्थान ना ज्यादा खुला हो और ना ही पूरी तरह बंद।
दिशा: पश्चिमा
दिक्पाल: वरुण
मंत्र: ॐ वं वरुणाय नमः
अस्त्र: पाश
पत्नी: वारुणी
ग्रह: शनि
देवी: शनिनी

6. वायव्य: वायुदेव के अधिकार वाली ये दिशा आपके पारिवारिक और मित्रता संबंधों पर विशेष प्रभाव डालती है। जिस स्थान पर उत्तर और पश्चिम दिशा मिलती है उसे ही वायव्य कहा जाता है। इस दिशा में वायु तत्व की प्रधानता रहती है इसी कारण ये स्थान सदैव खुला होना चाहिए ताकि वायु का आवागमन उचित रूप से होता रहे। अच्छा हो अगर आप इसे घर का सबसे हल्का हिस्सा बना कर रखें। इस दिशा में छोटी घंटियाँ लगाने से विशेष फल प्राप्त होता है। वायु के संपर्क में आने से जब घंटियाँ बजती है तो वो पूरे घर में सकारात्मकता का प्रवाह करती है। इस अतिरिक्त इस दिशा में पेड़-पौधे भी लगाना चाहिए ताकि वहाँ की वायु सदैव शुद्ध और स्वच्छ बनी रहे। ऐसा करने पर मनुष्य को उसकी इच्छित वस्तु प्राप्त होती है।
दिशा: वायवी
दिक्पाल: वायु
मंत्र: ॐ यं वायवे नमः
अस्त्र: अंकुश
पत्नी: स्वास्ति
ग्रह: चंद्र
देवी: चन्द्रिका

7. उत्तर: उत्तर दिशा के अधिपति रावण के बड़े भाई कुबेर हैं। कुबेर देवताओं के कोषाध्यक्ष भी हैं और इसी कारण इस दिशा का आपकी आर्थिक हालत पर बड़ा प्रभाव होता है। इस दिशा के स्वामी ग्रह बुध हैं और उनकी पत्नी इला इस दिशा की अधिष्ठात्री देवी हैं। इस दिशा का महत्त्व बहुत अधिक है और इसी कारण इसे “मातृ स्थान” भी कहा जाता है। ईशान दिशा के अतिरिक्त अगर घर का मुख्य द्वार उत्तर दिशा में हो तो वो बड़ा शुभ होता है। इस स्थान को कभी भर कर नहीं रखना चाहिए। अगर संभव हो तो इस दिशा की ओर कच्ची भूमि छोड़ देना चाहिए। ऐसा करना बहुत ही समृद्धिदायक होता है। अगर इस दिशा को गन्दा रखा गया तो ये मनुष्य की धन संपत्ति का नाश कर उनके दुर्भाग्य का कारण बनता है। अतः इस दिशा को सदैव साफ सुथरा रखना चाहिए और किसी प्रकार की अपवित्र वस्तु यहाँ नहीं रखनी चाहिए।
दिशा: उत्तरा
दिक्पाल: कुबेर
मंत्र: ॐ सं कुबेराय नमः
अस्त्र: गदा
पत्नी: भद्रा
ग्रह: बुध
देवी: इला

8. ईशान: वैसे तो ईशान दिशा के दिक्पाल सोम (चन्द्रमा) हैं किन्तु इस दिशा का स्वामी स्वयं महाकाल भगवान शिव को माना जाता है। यही कारण है कि भगवान शंकर का एक नाम ईशान भी है। पूर्व और उत्तर की दिशाएं जहां मिलती हैं वो दिशा ईशान कहलाती है। हमारे घर में इस दिशा को ईशान कोण कहा जाता है और ये स्थान सबसे पवित्र माना जाता है। इसीलिए इस स्थान को सदैव स्वच्छ रखना चाहिए। यदि ये स्थान खाली रहे तो और भी अच्छा है। अगर कुछ रखना ही हो तो इस दिशा में जल की स्थापना रखनी चाहिए। यहाँ पर जल से भरा मटका, पीने का पानी रख सकते हैं और अगर चाहें तो कुँए या बोरिंग भी इस दिशा में खुदवा सकते हैं। इस दिशा में कभी भी कचरा नहीं रखना चाहिए और साथ ही स्टोर, शौच स्थान या रसोईघर नहीं बनाना चाहिए। ऐसा करने से दुर्भाग्य आपके यहाँ घर कर लेता है।
दिशा: एशानी
दिक्पाल: सोम
मंत्र: ॐ चं चन्द्राय नमः
अस्त्र: पाश
पत्नी: रोहिणी
ग्रह: बृहस्पति
देवी: तारा

9. उर्ध्व: इस दिशा के देवता स्वयं परमपिता ब्रह्मा हैं। उर्ध्व का अर्थ आकाश है और जो कोई भी उर्ध्व की ओर मुख कर सच्चे मन से ईश्वर की प्रार्थना करता है, उसे उसका फल अवश्य प्राप्त होता है। वेदों में ऐसा लिखा है कि अगर कभी भी कुछ मांगना हो तो ब्रह्म और ब्रह्माण्ड से ही मांगना चाहिए। उनसे की हुई हर प्रार्थना स्वीकार होती है। हमारे घर की छत, छज्जे, रोशनदान एवं खिड़कियां इस दिशा का प्रतिनिधित्व करते हैं। कहा जाता है कि कभी भी आकाश की ओर देख कर अपशब्द नहीं बोलना चाहिए, आकाश की ओर कुछ फेंकना, थूकना, चिल्लाना इत्यादि वर्जित है। जिस प्रकार आकाश की ओर फेंकी हुई कोई भी चीज वापस आपके पास ही आती है उसी प्रकार आकाश की ओर देखकर की गयी प्रार्थना आप पर सकारात्मक प्रभाव डालती है और आपका जीवन खुशहाल हो जाता है। दूसरी ओर अगर आप आकाश की ओर देख कर अपशब्द कहते हैं अथवा बद्दुआ देते हैं तो वो वापस आपके ही जीवन पर नकारात्मक प्रभाव डालती है और उसे दुखों से भर देती है।
दिशा: ऊर्ध्वा
दिक्पाल: ब्रह्मा
मंत्र: ॐ ह्रीं ब्रह्मणे नमः
अस्त्र: पद्म
पत्नी: सरस्वती
ग्रह: केतु
देवी: ब्राह्मणी

10. अधो: जो इस पुरे ब्रह्माण्ड को आधार प्रदान करते हैं वो शेषनाग इस दिशा के अधिपति हैं। पुराणों में शेषनाग के स्वामी भगवान विष्णु को इस दिशा का दिक्पाल कहा गया है। जब भी कोई नया घर बनता है तो सर्वप्रथम धरती की वास्तु शांति की जाती है। कहा जाता है कि घर बनाने के लिए सदैव सकारात्मक ऊर्जा वाली भमि का चयन करना चाहिए। सुनसान अथवा कब्रिस्तान के पास की भूमि तो कदापि घर बनाने के लिए शुभ नहीं होती है। इस दिशा को अनुकूलित बनाने के बाद जीवन का आधार पुष्ट होता है उसमें स्थिरता आती है। इस दिशा को सदैव साफ़ सुथरा रखना चाहिए। जो भूमि पूर्व दिशा और आग्नेय कोण में ऊंची तथा पश्चिम तथा वायव्य कोण में धंसी हुई हो, ऐसी भूमि पर निवास करने वालों के सभी कष्ट दूर होते रहते हैं। अतः जब भी घर का निर्माण करना हो तो भूमि का चयन बहुत सोच समझ कर करना चाहिए।
दिशा: अधस्‌
दिक्पाल: अनंत
मंत्र: ॐ अं अनन्ताय नमः
अस्त्र: नागपाश
पत्नी: विमला
ग्रह: लग्न
देवी: वैष्णवी

“दिग्पाल” (दिक्पाल) साधना को ऐसे समझें (सिर्फ जानकारी के लिए मान्यता के अनुसार) –
पंडित एके शुक्ला के अनुसार दिगपाल साधना शुरू करने से पहले साधक को अपने शरीर के दाहिने हाथ के अंगूठे के तीन हिस्सों में से एक हिस्से पर लाल चंदन या फिर मसूर की दाल को पीसकर लगा लेना चाहिए। और फिर अपने बाएं हाथ के अंगूठे पर काजल लगा लेने के पश्चात इन दोनों अंगूठे को सामने रखें और नजर को अंगूठे के ऊपर स्थिर करते हुए मन ही मन “हू” बीज मंत्र का 108 बार जाप करें।

इसी तरह यह अभ्यास साधक को टोटल 11 दिनों तक करना है और फिर 12वें दिन साधक जिस व्यक्ति पर वशीकरण का प्रयोग इस्तेमाल करना चाहता है, उसके फोटो को जमीन पर रखें और दोनों अंगूठे को उस पर दबा दें और फिर मंत्र ‘झां झां झां हां हां हें हें हूं’ का जाप 108 बार करें।

माना जाता है कि जब साधक इस मंत्र का 108 बार जाप कर लेता है तब साधक जिस व्यक्ति पर वशीकरण करना चाहता है, उस पर तुरंत ही आकर्षण का प्रभाव होना चालू हो जाता है।

इस दौरान क्या करें
दिगपाल की साधना को बहुत ही सरल साधना माना जाता है, इस दौरान ब्रह्मचर्य का पालन करना जरूरी होता है। इसके अलावा इस साधना को आपको किसी एकांत जगह पर ही करना चाहिए।
ज्ञात हो कि वशीकरण को इस्तेमाल करने के लिए उत्तर दिशा और पूरब दिशा को अच्छा माना जाता है। अत: यदि आप किसी पर वशीकरण करने की इच्छा रखते हों तो आपको उत्तर या फिर पूरब दिशा की ओर अपना मुंह करके बैठना चाहिए।

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