कथा-
पौराणिक मान्यता के अनुसार, समुद्र मंथन के अंत में देवों के वैद्य धन्वंतरी जब अमृत कलश लेकर प्रकट हुए तो असुरों ने इस अमृत कलश को उनसे छीन लिया और फिर आपस में ही अमृतपान के लिए लड़ने लगे। असुरों की इस छीना झपटी को देखते हुए देवताओं को चिंता हो गई कि कहीं अमृत कलश नष्ट ना हो जाए और कोई असुर इसका इस अमृत का पान करके अमरता ना प्राप्त कर ले। भगवान विष्णु भी इस दृश्य को देख रहे थे।
तब भगवान विष्णु ने अमृत कलश को असुरों से प्राप्त करने के लिए मोहिनी रूप धारण किया और जैसे ही असुरों के सामने गए तो सभी असुर उनके इस रूप से मोहित हो उठे। तब असुरों ने आपस में लड़ना भी बंद कर दिया। इसके पश्चात मोहिनी रूप धारण किए भगवान विष्णु ने असुरों से अमृत कलश भी ले लिया।
इसके बाद असुर भी विष्णु जी के मोहिनी स्वरूप से प्रभावित होकर देवताओं का रूप धारण करके उनकी पंक्ति में शामिल हो गए। लेकिन जब भगवान विष्णु देवताओं को अमृत पिला रहे थे तो उस दौरान देवता का रूप धारण किए हुए उनमें से एक असुर का असली रूप सामने आ गया। इसके बाद क्रोध में आकर भगवान विष्णु ने उस असुर का सिर धड़ से अलग कर दिया जिसके बाद राहु-केतु प्रकट हुए।
कहते हैं कि भगवान विष्णु द्वारा मोहिनी रूप धारण करने के कारण ही अमृत कलश असुरों से बच पाया और उस अमृत को देवतागण पी पाए। वहीं जिस दिन यह घटना घटी उस दिन वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी थी। इसलिए इस एकादशी का नाम भगवान विष्णु के मोहिनी स्वरूप पर पड़ा।
इस कारण मोहिनी एकादशी की कथा भगवान विष्णु की विधि-विधान से पूजा और व्रत का बहुत महत्व बताया गया है। माना जाता है कि इस एकादशी का व्रत करने वाला मनुष्य सभी मोह बंधनों से छूटकर मोक्ष को प्राप्त करता है।