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गीता में बताया है स्टूडेंट्स को करना चाहिए कैसा भोजन, यहां पढ़ें काम की बातें

पढ़ाई किसी साधना से कम नहीं है, जिसमें सफलता के लिए उन्हीं गुणों की जरूरत होती है, जो एक साधक के लिए चाहिए। इसमें भोजन की भी भूमिका होती है, जिसके बारे में भगवद् गीता (Bhagvad Geeta) में विस्तार से बताया गया है। साधक का यह भोजन अपनाने से स्टूडेंट्स (students food ) भी अपना टारगेट अचीव कर सकते हैं तो आइये जानते हैं गीता के अनुसार साधक और स्टूडेंट्स को करना चाहिए कैसा भोजन...

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Pravin Pandey

Jun 03, 2023

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गीता में विद्यार्थियों के लिए बताया गया है कैसा भोजन

गीता में साधक के लिए बताए गए भोजन को स्टूडेंट्स को भी अपनाना चाहिए। इसके अनुसार स्टूडेंट्स अधिक भोजन करेगा तो उसको आलस्य और निद्रा घेरेंगे, जिससे वह पढ़ाई नहीं कर सकता और भोजन नहीं करेगा तो शरीर क्षीण होने से पढ़ाई के लिए बैठने की क्षमता नहीं रहेगी, अतः साधक यानी विद्यार्थी के लिए उचित भोजन का विधान बताया गया है।


स्टूडेंट्स को बचना चाहिए इस तरह के भोजन से
गीता के अनुसार संसार में हर जगह की अलग-अलग परस्थिति है, उन परिस्थितियों के हिसाब से जहां जैसा भोजन उपलब्ध है, वही सात्विक है और वस्तु नहीं वृत्ति सात्विक होती है। लेकिन जो भोजन नशा करता हो, जिससे साधना में ध्यान न लगे और उत्तेजना वाला हो, जिससे कामना उत्पन्न होती हो, ऐसे भोजन से साधकों और स्टूडेंट्स को बचना चाहिए। क्योंकि इससे वह लक्ष्य से भटक सकता है।

इन भोज्य पदार्थों का करना चाहिए सेवन
गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा है व्यक्ति की तीन वृत्तियां हैं, सात्विक, राजसी और तामसिक। भगवान श्रीकृष्ण के अनुसार स्वभाव से हृदय को प्रिय लगने वाला, बल, आरोग्य, बुद्धि और आयु बढ़ाने वाला भोज्य पदार्थ ही सात्त्विक है और यही सात्त्विक मनुष्य को प्रिय भी होता हैं। गीता के अनुसार रसयुक्त, चिकना और स्थिर रहने वाला भोज्य पदार्थ सात्त्विक है। इसीलिए जीवन में कहीं किसी खाद्य पदार्थ को घटाना बढ़ाना नहीं है। परिस्थिति, परिवेश तथा देश काल के अनुसार जो भोज्य वस्तु स्वभाव से प्रिय लगे और जीवनी शक्ति प्रदान करे, वही सात्त्विक है और उसका सेवन करना चाहिए।

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जो और जितना भोजन पढ़ाई में सहायक है उसे अपनाना चाहिए
सद्गुरु अड़गड़ानंद के अनुसार गीता की बात को ध्यान में रखकर जो व्यक्ति घर परिवार त्याग कर केवल ईश्वर आराधना मे लिप्त हैं, संन्यास आश्रम में है, उनके लिए मांस मदिरा त्याज्य है, क्योंकि अनुभव से देखा गया है कि ये पदार्थ आध्यात्मिक मार्ग के विपरीत मनोभाव उत्पन्न करते हैं, अतः इनसे साधना पथ से भ्रष्ट होने की अधिक सम्भावना रहती है, जो एकान्त देश का सेवन करने वाले विरक्त हैं, उनके लिए योगेश्वर श्रीकृष्ण ने गीता के अध्याय छह में आहार के लिए एक नियम दिया है कि 'युक्ताहार विहारस्य' इसी को ध्यान में रख कर आचरण करना चाहिये। जो भजन (पढ़ाई या साधना) में सहायक है उतना (वही) आहार ग्रहण करना चाहिए।


सद्गुगुरु अड़गड़ानंद ने क्या समझाया
सद्गुरु अड़गड़ानंद ने गीता की व्याख्या यथार्थ गीता में इसी बात को समझाया है कि जहां तक बल, बुद्धि, आरोग्य और हृदय को प्रिय लगने का प्रश्न है तो विश्व भर में मनुष्यों को अपनी-अपनी प्रकृति, वातावरण और परिस्थितियों के अनुकूल विभिन्न खाद्य सामग्रियां प्रिय होती हैं, जैसे- बंगालियों और मद्रासियों को चावल प्रिय होता है और पंजाबियों को रोटी। अरब वासियों को दुम्बा, चीनियों को मेंढक तो दूसरी ओर ठंडे प्रदेशों में मांस बिना गुजारा नहीं होता है।


रूस और मंगोलिया के आदिवासी भोजन के रूप में घोड़े का भी इस्तेमाल करते हैं, यूरोपवासी गाय तथा पिग दोनों खाते हैं, फिर भी विद्या, बुद्धि विकास और उन्नति में अमेरिका और यूरोपवासी प्रथम श्रेणी में गिने जा रहे हैं। यानी कोई वस्तु सात्त्विकी, राजसी अथवा तामसी नहीं होती, बल्कि उसका प्रयोग सात्त्विकी, राजसी और तामसी हुआ करता है।