
भगवान परशुराम को आते देख कर वृद्ध राजा दशरथ का हृदय कांप उठा। उन्होंने कातर भाव से देखा महर्षि वशिष्ठ और विश्वामित्र की ओर, जैसे कह रहे हों- इस ईश्वरीय कोप से हमारी रक्षा करें ऋषिगण...
भगवान विष्णु ने परशुरामावतार सत्ताधारियों की निरंकुशता को समाप्त करने के लिए लिया था। सुदूर पश्चिम के बर्बर प्रदेशों से आने वाले राक्षसों के आक्रमण और कुछ समय तक आर्यवर्त में भी उनकी सत्ता स्थापित होने के कारण कुछ क्षत्रियों पर भी उनका प्रभाव पड़ा था और वे आततायी हो गए थे। भगवान परशुराम ने ऐसे क्षत्रियों को बार बार दंडित किया था। पर रघुकुल के शासक सदैव प्रजावत्सल होते आये थे, सो उनके साथ उनका कोई संघर्ष नहीं हुआ था।
भगवान विष्णु का अंश होने के कारण भगवान परशुराम यह भी जानते थे कि अगला अवतार भी इसी कुल में जन्म लेगा, सो अगले युगनायक की पहचान कर उसका मार्ग प्रशस्त करना भी उनका दायित्व था।
भगवान परशुराम के स्वागत के लिए महर्षि वशिष्ठ और विश्वामित्र आगे बढ़े, और उनका यथोचित सम्मान किया। पर आगंतुक की इस सम्मान में कोई रुचि नहीं थी। उनकी दृष्टि जिसे ढूंढ रही थी, उसे देखते ही वे आगे बढ़े और उन तक पहुंच कर पूछा, "राम आप ही हैं?"
राम के मुख पर दैवीय शान्ति थी। कहा, "जी भगवन!"
-शिव धनुष आपने ही तोड़ा है?
-जी प्रभु!
-फिर तो आप यह भी जानते होंगे कि मैं क्यों आया हूँ?
-जी भगवन!
- तो लीजिये भगवान विष्णु का यह महान धनुष, जो युगों से मेरे पास पड़ा है, शायद आपकी ही प्रतीक्षा कर रहा है। इस पर प्रत्यंचा चढ़ाइए और सिद्ध कीजिये की आप ही राम हैं।
भगवान परशुराम ने अपने कन्धे से एक अद्भुत धनुष उतारा और राम की ओर बढ़ा दिया। राजा दशरथ के साथ समस्त अयोध्या निवाशी आश्चर्य में डूबे इस महान दृश्य को चुपचाप देख रहे थे। पर दो लोग थे, जिनके मुख पर आश्चर्य नहीं, प्रसन्नता पसरी हुई थी। वे थे महर्षि वशिष्ठ और विश्वामित्र!
राम मुस्कुराए। भगवान परशुराम के हाथों से धनुष लिया और क्षण भर में प्रत्यंचा चढ़ा दी। फिर बाण चढ़ा कर बोले, "कहिये भगवन! इस बाण से किसका नाश करूं?"
भगवान परशुराम तीव्र ध्वनि में हंसने लगे। उन्हें इस तरह हंसते हुए कभी न देखा गया था। बोले, "इस बाण को छोड़ने की आवश्यकता ही नहीं राम। आपके बाण चढ़ाते ही मेरी समस्त अर्जित शक्तियां आपकी हो गयी हैं और मैं शक्तिहीन हो गया हूं। इसे उतार लें और मुझे महेंद्र पर्वत पहुंचाने की कृपा करें, क्योंकि इसी के साथ मेरी तीव्र गति से कहीं भी चले जाने की शक्ति भी समाप्त हो गयी है। यह आपका युग है राम! और जब तक आप हैं, तब तक मैं महेंद्र पर्वत पर ही तपस्यारत रहूंगा।"
राम के चेहरे की मुस्कान बनी रही। पूर्व की भांति ही कहा, "जो आज्ञा भगवन!"
भगवान परशुराम अब महर्षि वशिष्ठ और विश्वामित्र की ओर मुड़े, और मुस्कुराते हुए कहा, "बधाई हो ऋषिगण!"
उस युग के तीन महान तपस्वी एक साथ हंस उठे, जिसका रहस्य सिवाय राम के और कोई न समझ सका। महर्षि वशिष्ठ ने कहा, "रघुकुल को आपके आशीष की आवश्यकता है भगवन! कृपया सबको कृतार्थ करें।"
राजा दशरथ, राम चारों भाई और चारों वधुएं निकट आ गयी थीं और सभी हाथ जोड़ कर खड़े थे। परशुराम बोले, "राम को क्या आशीष दूं, वे तो राम ही हैं। पूरे कुल को आशीष देता हूं, कि परस्पर प्रेम बना रहे।"
इतना कह कर परशुराम वधुओं के निकट चले गए और फिर कहा, "एक दूसरे पर विश्वास और समर्पण बनाये रखना पुत्रियों! तुम्हारे कुल को इसकी बहुत आवश्यकता है। सिया तो समूचे संसार के लिए लक्ष्मी स्वरूपा है, पर रघुकुल की लक्ष्मी तुम हो उर्मिला! सदैव स्मरण रखना, रघुकुल की प्रतिष्ठा तुम्हारी तपस्या से भी तय होगी..."
सबको आशीर्वाद दे कर परशुराम पुनः महर्षि वशिष्ठ और विश्वामित्र की ओर मुड़े। तीनों ऋषियों में कुछ वार्ता हुई, जिसे कोई न सुन सका। इसी के साथ परशुराम अपने धाम को लौट चले।
बारात अयोध्या की ओर बढ़ चली।
क्रमशः
Published on:
21 Oct 2022 02:40 pm
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