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कैसे विद्याधर से आचार्य बने विद्यासागर, पढ़ें उनके जीवन से जुड़ी एक-एक बात

दीक्षा दिवस : कड़ी तपस्या और त्याग का नाम आचार्य विद्यासागर

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सागर

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Samved Jain

Jun 30, 2018

कैसे विद्याधर से आचार्य बने विद्यासागर, पढ़ें उनके जीवन से जुड़ी एक-एक बात

कैसे विद्याधर से आचार्य बने विद्यासागर, पढ़ें उनके जीवन से जुड़ी एक-एक बात

सागर. जैन संत आचार्यश्री विद्यासागर महाराज का संयम स्वर्ण जयंती महोत्सव मुनि दीक्षा दिवस आज बड़े ही धूमधाम से मनाया जा रहा है। देश भर में जैन समाज और अन्य द्वारा अपने गुरु का दीक्षा दिवस संयम स्वर्ण महोत्सव के रूप में मनाया जा रहा है। ऐसे परम तपस्वी गुरुवर की तप और त्याग के बारे में जो भी जानता है वह उनका भक्त बन जाता है। ऐसे दृश्य गत 2016 में दमोह के कुंडलपुर में गुरुवर द्वारा बिताए दो महीनों के दौरान अधिक देखने मिले।

आचार्यश्री फिलहाल टीकमगढ़ जिले में विराजमान है। जहां नजदीक की स्थित अतिशय क्षेत्र बंधाजी में शनिवार को बड़ी ही धूमधाम से आचार्य विद्यासागर का मुनि दीक्षा दिवस बड़ी ही धूम धाम से मनाया जा रहा है। कार्यक्रम के मद्देनजर एक दिन पूर्व से हजारों की संख्या में श्रद्धालु टीकमगढ़ बंधाजी पहुंच चुके है, जहां सभी धर्मलाभ अर्जित कर रहे है। शनिवार को सुबह से मंदिर जी में आचार्य भगवन का पूजन, विधान का आयोजन किया गया। जिसमें सभी धर्मालंबियों ने भाग लिया। आचार्य भगवन के आहार के बाद दोपहर में आचार्यश्री के प्रवचन होंगे। इस दौरान दीक्षा दिवस संबंधी कार्यक्रमों का आयोजन किया गया। वहीं शाम को विविध सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया गया। इस अवसर पर भक्तों का उत्साह देखने लायक रहेगा।

इधर आचार्यश्री के मुनि दीक्षा दिवस पर पूरे बुंदेलखंड में जैन समाज द्वारा अलग-अलग कार्यक्रमों का आयोजन किया जा रहा है। सागर, दमोह, टीकमगढ़, छतरपुर,बीना में सुबह से मंदिरों में आचार्य विद्यासागर का पूजन, विधान का आयोजन किया गया। मंदिरों में इस मौके पर सांस्कृतिक आयोजन भी हुए। अनेक मंदिरों में सांस्कृतिक आयोजन भी होंगे। आचार्य विद्यासागर कैसे विद्याधर से विद्यासागर बने, उनके जीवन वृत्त को जानने में समझ आता है। उनके जीवन पर एक फिल्म का प्रसारण भी देश भर में किया जा रहा है। चलिए आप भी जान लीजिए आचार्यश्री के जीवन के जुड़े कुछ पहलुओं को...

कर्नाटक में जन्में विद्याधर

आचार्य विद्यासागर महराज का जन्म 10 अक्टूबर 1946 शरद पूर्णिमा को कर्नाटक के बेलगांव जिले के सद्लगा ग्राम में हुआ था। उनके पिता मल्लप्पा व मां श्रीमति ने उनका नाम विद्याधर रखा था। कन्नड़ भाषा में हाईस्कूल तक अध्ययन करने के बाद विद्याधर ने 1967 में आचार्य देशभूषण महाराज से ब्रम्हचर्य व्रत ले लिया। इसके बाद जो कठिन साधना का दौर शुरू हुआ तो विद्याधर ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। उनके तपोबल की आभा में हर वस्तु उनके चरणों में समर्पित होती चली गई।

कम उम्र में कठिन साधना
कठिन साधना का मार्ग पार करते हुए विद्याधर ने महज 22 वर्ष की उम्र में 30 जून 1968 को अजमेर में आचार्य ज्ञानसागर महाराज से मुनि दीक्षा ली। गुरुवर ने उन्हें विद्याधर से मुनि विद्यासागर बनाया। 22 नवंबर 1972 को अजमेर में ही गुरुवार ने आचार्य की उपाधि देकर उन्हें मुनि विद्यासागर से आचार्य विद्यासागर बना दिया। आचार्य पद की उपाधि मिलने के बाद आचार्य विद्यासागर ने देश भर में पदयात्रा की। चातुर्मास, गजरथ महोत्सव के माध्यम से अहिंसा व सद्भाव का संदेश दिया। समाज को नई दिशा दी।

इतनी भाषाओं का है ज्ञान
आचार्यश्री संस्कृत व प्राकृत भाषा के साथ हिन्दी, मराठी और कन्नड़ भाषा का भी विशेष ज्ञान रखते हैं। उन्होंने हिन्दी और संस्कृत में कई रचनाएं भी लिखी हैं। इतना ही नहीं पीएचडी व मास्टर डिग्री के कई शोधार्थियों ने उनके कार्य में निरंजना शतक, भावना शतक, परीग्रह जाया शतक, सुनीति शतक और शरमाना शतक पर अध्ययन व मूक माटी पर शोध किया है। इस समय आचार्यश्री हयाकू काव्य की रचना कर रहे है। जो प्रकाशन के पूर्व ही काफी चर्चाओं में है।

कुंडलपुर कमेटी के संतोष सिंघई ने बताया कि गृह त्याग के बाद से ठंड, बरसात और गर्मी से विचलित हुए बिना आचार्यश्री ने कठिन तप किया। उनका त्याग और तपोबल आज किसी से छिपा नहीं है। इसी तपोबल के कारण सारी दुनिया उनके आगे नतमस्तक है। तपोमार्ग पर उनके ५१वें वर्ष पर प्रवेश का साक्षी बनने के लिए हर कोई आतुर है। कुंडलपुर कमेटी ने हाल ही में पपौराजी टीकमगढ़ पहुंचकर गुरु से कुंडलपुर में बर्षाकाल वाचना करने का आशीर्वाद चाहा है। जिसकी उम्मीद भी सभी भक्तों को है।


ऐसे बदल जाता है गुरु के स्पर्श से जीवन
जैन संत आचार्यश्री विद्यासागर महाराज 29 जून 2016 को दमोह से विहार के दौरान जिस मामूली पत्थर को कुछ पल के लिए आसन बनाया, वह पारस का बन गया था। महज 30 रुपये कीमति पत्थर की बोली सामाज के लोगों द्वारा 11 लाख रुपये तक लगा दी थी, लेकिन चाय-पान की दुकान संचालक ग्रामीण ने इसे अनमोल घोषित कर अपने पास रखा लिया था। जिस व्यक्ति ने आचार्यश्री विद्यासागर के प्रति अटूट भक्ति का परिचय दिया है वह जैन नहीं है। लेकिन उसका मानना है कि देशभर से लोग जहां गुरुवर को अपने शहर बुलाने के लिए वर्षों तक मन्नत करते है, वहीं गुरुवर आज इस गरीब की कुटिया के पास स्वयं पहुंचे है। इससे वह धन्य हो गया है। कल तक मामूली पत्थर रहा अब उसका सबसे खास पत्थर बन गया है।