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होली के सात ऐसे किस्से.. आप भी कहेंगे कि ऐसे कैसे मनाई जाती थी होली

पत्रिका ने शहर के कुछ बुजुर्गों से बात कर जानने की कोशिश की है कि पहले और अब के त्योहार में क्या परिवर्तन आया है। जानिए कुछ रोचक किस्से

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सतना

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Rajiv Jain

Mar 21, 2019

Happy Holi

Happy Holi

सतना. होली आपसी भाईचारा, सद्भावना, मेल मिलाप का त्योहार है। पहले यह हर्षोल्लास और उमंग के साथ मनाया जाता था। अब औपचारिकता निभाई जाती है। पत्रिका ने शहर के कुछ बुजुर्गों से बात कर जानने की कोशिश की है कि पहले और अब के त्योहार में क्या परिवर्तन आया है। जानिए कुछ रोचक किस्से:

मोहल्ले-मोहल्ले घूमती थीं टोलियां
64 वर्षीय समाजसेवी सुधीर जैन बताते हैं, पहले हम लोग होली के लिए विशेष तैयारी करते थे। हर मोहल्ले में टोलियां बनती थीं। होलिका दहन की तैयारी होती थी। लकड़ी इक_ा की जाती थी। होलिका को सजाया जाता था। होलिका दहन के समय नगडिय़ा और ढपली बजाकर फ ाग गाई जाती थी और जो चंदा नहीं देता था उसे समझाइश भी देते थे। लाल कपड़े में लिपटे मटके में ठेले पर कुल्फी बेचने वाले उस दिन खासतौर पर भांग की कुल्फ ी बेचते थे। दूसरे दिन सुबह से ही रंग लिए टोलियां मोहल्ले-मोहल्ले घूमती थीं। पूरे दिन हुड़दंग का माहौल रहता था। आजकल तो लोगों में जैसे उत्साह ही नहीं रह गया है। कुछ बच्चे छोटी-मोटी होली जलाकर खानापूर्ति कर लेते हैं। रंग भी दोपहर १२ बजे तक बंद हो जाता है। पहले जहां यह सार्वजनिक त्यौहार था, वहां अब छोटे-छोटे ग्रुप में बंट गया है। अब न तो लोगों के पास समय है न उत्साह है।

Holi ke kisse IMAGE CREDIT: patrika

बड़े से कड़ाहे में घोले जाते थे रंग
बिहारी चौक के 76 वर्षीय शालिगराम परौहा का कहना है, पहले की होली याद कर लो तो आज भी रंग खेलने की उम्मीद जगने लगती है। पर अब वह होली खेलने नहीं जाते। पुराने लोग चौराहों पर बड़े-बड़े कड़ाहे रखते थे और लाल-पीले रंग का घोल तैयार करते थे। हम सभी नए कपड़े पहनकर ही होली खेलने जाते थे। पूरे चौराहे को सजाया जाता था। सैकड़ों की तादात में लोग एकत्रित होते थे, बड़े और बच्चे सभी सम्मिलित होते थे। कुंटलों लकडि़यां होलिका दहन के लिए एकत्रित की जाती थीं। अब छोटे से ही भाग में होलिका दहन होता है। सबसे बड़ी होलिका सुभाष पार्क में जलाई जाती थी, वहां हम सब टोलियों में जाते थे। अब तो होली में शराबियों का जामवाड़ा लगा रहता है। पहले भांग की बर्फी और ठंडई ही नशे के लिए पर्याप्त होती थी। होली का त्योहार भी सीमित हो गया।

Holi Photo IMAGE CREDIT: patrika


टोलियां रातभर करती थीं भ्रमण
रामना टोला निवासी 68 वर्षीय रमेश गजरानी बताते हैं, पहले एक महीने पूर्व से ही होली की तैयारी होती थी। लोग बड़ी होलिका दहन के लिए एक से दो टन लकडि़यां एकत्रित करते थे। अब होलिका दहन के लिए पहले से कोई तैयारी नहीं होती। एक दिन में थोड़ी सी लकड़ी जलाकर होलिका दहन की पूर्ति की जाती है। पहले रातभर लोगों की टोलियां पूरे शहर में होली के दिन भ्रमण करती थीं। जो भी रास्ते में मिले उसका गुलाल लगाकर मुंह मीठा कराया जाता था। अब तो होली महज खानापूर्ति तक सीमित हो गई। पता ही नहीं चलता कि कब होली आ गई और कब चली गई। टीवी, मोबाइल ने भारतीय त्योहारों का महत्व ही सीमित कर दिया है। लोग एक-दूसरे से मिलने की बजाय अब घर के अंदर रहना पसंद करते हैं।

Holi ke kisse IMAGE CREDIT: patrika

लकड़ी चोरी करने में आता था मजा
रामना टोला निवासी 68 वर्षीय रमेश गजरानी उन दिनों को याद करते हुए बताते हैं, हम लोग एक महीने पहले से ही होली की तैयारी करने लगते थे। लोग बड़ी होलिका दहन के लिए एक से दो टन लकडि़यां एकत्रित करते थे, यहां तक कि घरों में रखी लकडि़यों की चोरी भी की जाती थी। होलिका दहन पर बच्चों, युवाओं, महिलाओं और बुजुर्ग की टोली रातभर होलिका के दर्शन करने पहुंचती थी। होलिका दहन के समय लोग फाग गाते थे। ड्रम में रंग घोले जाते थे। हर किसी को रंगा जाता था। भांग वाली गुझिया खाते थे, भांग चढ़ जाने पर कोई हंसता ही रहता था, कोई खाता तो कोई सोता। अब ये सब देखने को ही नहीं मिलता। बल्कि किसी को कोई रंग लगा दे तो सामने वाला झगड़ा करने लगता है। नए जमाने में सबकुछ दिखावा है।

होली साधारण पर मजेदार होती थी
सिंधी कैम्प निवासी 67 वर्षीय चंदूलाल वाधवानी ने बताया, हमारे जमाने की होली साधारण होती थी पर बहुत ही मजेदार। हम सब जमकर रंग खेलते थे। रंग का सिलसिला रातभर चलता था। हर उम्र के लोग अपने-अपने ग्रुपों में होली खेलते थे। सबसे बड़ी बात फूलों के रंग तैयार कर उसी रंग से एक दूसरे को रंगते थे। इस होली में पूरे समाज के लोगों को शामिल किया जाता था। अब एेसा नहीं है। अब तो लोग अपने परिवार के लोगों को भी इस त्योहार में ठीक से शामिल नहीं करते। होली पर मंदिर जाते थे, अब बहुत ही कम लोग मंदिर जाते हैं। समाज की धर्मशाला में जिनके यहां गमी होती थी उनको बुलाया जाता था। सारे समाज के लोग उन्हें गुलाल लगाते। घर-घर जाकर होली की बधाई दी जाती थी।

गले मिलना, गुलाल लगाना एक परंपरा थी
धवारी के रिटायर्ड लेबर ऑफिसर जीपी मिश्रा (86) का कहना है कि पहले की होली होली थी। अब की होली तो नाटक हो गई है। हफ्ते तक मोहल्ले-मोहल्ले जाकर रंग खेला जाता था। रंग के नाम पर ज्यादातर गुलाल होते थे। छोटे हों या फिर बड़े, सभी एक-दूसरे के गले मिलते और फिर गुलाल लगाकर होली की बधाई देते थे। यह एक परंपरा थी। पर अब यह परम्परा समाप्त हो गई। यंग एज के लोगों में अब रंग खेलने का उत्साह ही नहीं रहा। १२ बजे तक रंग खेल लिया जाता है। पर कमरों में बैठ कर लोग बच्चे मोबाइल और टीवी में व्यस्त हो जाते हैं। पुरानी परम्परा लुप्त हो रही है। डर इस बात का है कि यह त्योहार ही न लोग भुला दें।

कोई नहीं बचता था रंगने से
संग्राम कॉलोनी निवासी चंद्रशेखर अग्रवाल 63 साल के हैं। उनका कहना है बीस से तीस वर्ष के अंतराल में होली के मायने ही बदल गए। अब यह त्योहार उतना मजेदार नहीं रह गया। एक महीने पहले से कुंटलभर लकड़ी एकत्रित की जाती थी। हर कोई भांग की मिठाई, गुझिया और ठंडई पीता था। चौराहे-चौराहे पर इसका इंतजाम रहता था। सबसे बड़ी होलिका सुभाष पार्क में जलाई जाती थी। वहां रातभर लोगों का जामवाड़ा रहता था। देवर-भाभी, ननद-भाभी, दोस्त-दोस्त की होली देखने लयाक होती थी। कोई भी व्यक्ति एेसा नहीं होता था जो रंग से बच जाए। रास्ते से गुजरने वाले व्यक्ति को ऊपर से लेकर नीचे तक रंग दिया जाता था, जो ज्यादा नराजगी दिखाए उसे रंग के ड्रम में डूबा दिया जाता था। अब होली बच्चों तक सीमित रह गई। युवा तो नशे में ही धुत हो जाते हैं।