
टापुर (ढील)बांध पर लगा शिलालेख, टापुर में अंग्रेेजों के समय का बना विश्राम गृह
जयपुर के तत्कालीन शासक सवाई माधोसिंह द्वितीय ने 1911 में इस बांध का निर्माण करवाया
शिवाड़ में भगवान घुश्मेश्वर महादेव के दरबार में 28जुलाई से एक माह तक सावन महोत्सव का आगाज होगा। ऐसे में शिवाड़ आने वाले दर्शनार्थी कुछ समय अतिरिक्त निकाल कर आएं तो शिवाड़ से महज 9 किलोमीटर दूर टापुर के बांध को देखना न भूलें। हालांकि अभी बांध को लबालब होते देखने के लिए तेज बरसात के एकाध दौर का इंतजार है। टापुर का बांध सरकारी रिकॉर्ड में ढील बांध या गोपालपुरा बांध के नाम से दर्ज है। बांध जब लबालब होता है तो चादर चलती देखने व बहते झरनों का लुत्फ उठाने यहां भीड़ उमड़ती है।
हालांकि ऐसा नजारा अब दो-तीन साल में एक बार ही देखने को मिलता है। बांध के जलभराव क्षेत्रों में अतिक्रमण जो हो गया है। गांव के नजदीक होते हुए भी सैलानियों के लिए आकर्षण रहने वाले इस बांध को देखने का अब तक एक बार ही मौका मिला है। छात्र जीवन में पारिवारिक अनुशासन और बाद में अपने कार्यक्षेत्र की व्यस्तता ने यहां जाने का मौका नहीं दिया। इसीलिए टापुर के इस बांध की जानकारी जुटाने के लिए अपने सहपाठी और टापुर गांव के ही निवासी हनुमान प्रसाद शर्मा की मदद ली। वे जयपुर में सहायक लेखाधिकारी हैं।
इस मनोरम स्थल का अंदाजा तो चित्रों से हो ही जाएगा लेकिन बांध के बनने का इतिहास भी कम रोचक नहीं है। यहां एक शिलालेख लगा हुआ है जिस पर आंग्लभाषा व हिन्दी में इबारत लिखी है उसके मुताबिक जयपुर के तत्कालीन शासक सवाईमाधोसिंह द्वितीय ने संवत 1968 यानी सन् 1911 में इस बांध का निर्माण करवाया था। करीब 250 वर्गमील जलभराव क्षेत्र वाले इस बांध की क्षमता 1215 मिलियन क्यूबिक फीट थी। बांध से करीब 29 मील तक नहरें बनी हैं। यानी सिंचाई का बेहतरीन साधन। लेकिन यहां काश्तकारों की दुश्वारियां भी कम होती नहीं दिख रही। इस विशाल बांध के निर्माण में तब तीन लाख 9 हजार रुपए की लागत आई थी।
अपने शिवाड़ स्थित घर की छत से टापुर के बांध की विशाल जलराशि को देखकर रोमांचित होता रहता था। लेकिन जैसा मैंने जिक्र किया, यहां जाने की चाहत एक बार ही पूरी हो पाई। इस क्षेत्र में बीसलपुर बांध के बाद शायद यह एकमात्र रमणीय स्थल है जहां पर्यटन गतिविधियों का बढ़ावा दिया जा सकता है। लेकिन हमारे हुक्मरानों को शायद वोट लेते समय ही इनकी परवाह होती होगी। तभी तो आजादी के सत्तर साल बाद भी टापुर के इस बांध तक जाने का रास्ता मात्र ट्रेक्टरों या जीप के जरिए ही तय करना संभव है। आजादी के पूर्व यहां अंग्रेज रेजीडेंट के प्रतिनिधि आमोद-प्रमोद व शिकार के लिए आते थे।
यहां अंग्रेजो के समय का डाक बंगला व आकर्षक छतरियां इसका स्मरण कराती हैं। चर्चा इस बांध के निर्माण की हो रही है तो यह भी याद दिला दूं कि जयपुर के शासक सवाई माधोसिंह द्वितीय का इस क्षेत्र से नाता रहा है। ईसरदा ठिकाने से गोद गए माधोसिंह जी को शायद इसी नाते ने क्षेत्र में बांध बनाने की प्रेरणा दी होगी। यहां जो शिलालेख लगा है
उसमें माधोसिंह जी को ‘मेजर जनरल हिज हाईनेस सरमदा राजा ए हिंदुस्तान राज राजेन्द्र श्री महाराजाधिराज सर सवाईमाधोसिंह जी बहादुर’ की लंबी उपाधि का जिक्र है। इस शिलालेख का हिन्दी तजुर्मा अब धुंधलाता जा रहा है। टापुर का जुड़ाव पुराण प्रसिद्ध घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिंग से भी है। इस जुड़ाव की चर्चा फिर कभी। लेकिन यह जरूर बताना चाहूंगा कि टापुर को पहले तारापुर के नाम से जाना जाता था। यह नाम टापुर हो गया।
Published on:
03 Aug 2018 08:49 pm
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