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‘मां’ के रोल में जान डाल देती थीं निरूपा रॉय

उन्होंने अपने सिने करियर की शुरुआत 1946 में प्रदर्शित गुजराती फिल्म 'गणसुंदरी' से की

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Jameel Ahmed Khan

Jan 04, 2017

nirupa roy

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मुंबई। हिन्दी सिनेमा में निरूपा रॉय को ऐसी अभिनेत्री के तौर पर याद किया जाता है जिन्होंने अपने किरदारों से मां के चरित्र को नया आयाम दिया। निरूपा रॉय (कोकिला) का जन्म 4 जनवरी, 1931 को गुजरात के बलसाड में एक मध्यमवर्गीय गुजराती परिवार में हुआ। उनके पिता रेलवे में काम किया करते थे। उन्होंने चौथी तक शिक्षा प्राप्त की। इसके बाद उनका विवाह मुंबई में कार्यरत राशनिंग विभाग के कर्मचारी कमल राय से हो गया। शादी के बाद निरूपा राय मुंबई आ गई।

उन्हीं दिनो निर्माता-निर्देशक बी.एम.व्यास अपनी नई फिल्म 'रनकदेवीÓ के लिए नए चेहरों की तलाश कर रहे थे। उन्होंने अपनी फिल्म में कलाकारो की आवश्यकता के लिए अखबार में विज्ञापन निकाला। निरूपा राय के पति फिल्मों के बेहद शौकीन थे और अभिनेता बनना चाहते थे। कमल रॉय अपनी पत्नी को लेकर बी.एम.व्यास से मिलने गए और अभिनेता बनने की पेशकश की, लेकिन बी.एम.व्यास ने साफ कह दिया कि उनका व्यक्तित्व अभिनेता के लायक नहीं है। लेकिन, यदि वह चाहें तो उनकी पत्नी को फिल्म में अभिनेत्री के रूप में काम मिल सकता है।

फिल्म 'रनकदेवी' में निरूपा रॉय 150 रुपए माह पर काम करने लगी, लेकिन बाद में उन्हें इस फिल्म से अलग कर दिया गया। उन्होंने अपने सिने करियर की शुरुआत 1946 में प्रदर्शित गुजराती फिल्म 'गणसुंदरी' से की। वर्ष 1949 में प्रदर्शित फिल्म 'हमारी मंजिल' से उन्होंने हिंदी फिल्म की ओर भी रुख कर लिया। ओ.पी.दत्ता के निर्देशन में बनी इस फिल्म में उनके नायक की भूमिका प्रेम अदीब ने निभाई।

उसी वर्ष उन्हें जयराज के साथ फिल्म 'गरीबी' में काम करने का अवसर मिला। इन फिल्मों की सफलता के बाद वह अभिनेत्री के रूप में अपनी पहचान बनाने में कामयाब हो गई। वर्ष 1951 में उनकी एक और महत्वपूर्ण फिल्म 'हर हर महादेव' प्रदर्शित हुई। इस फिल्म में उन्होंने देवी पार्वती की भूमिका निभाई। फिल्म की सफलता के बाद वह दर्शकों के बीच देवी के रूप में प्रसिद्ध हो गई।

इसी दौरान उन्होंने फिल्म 'वीर भीमसेन' में द्रौपदी का किरदार निभाकर दर्शकों का दिल जीत लिया। पचास और साठ के दशक में निरूपा रॉय ने जिन फिल्मों में काम किया उनमें अधिकतर फिल्मों की कहानी धार्मिक और भक्तिभावना से परिपूर्ण थी। हालांकि, वर्ष 1951 में प्रदर्शित फिल्म 'ङ्क्षसदबाद द सेलर' में उन्होंने नकारात्मक चरित्र भी निभाया। वर्ष 1953 में प्रदर्शित फिल्म 'दो बीघा जमीन' उनके सिने करियर के लिए मील का पत्थर साबित हुई।

विमल रॉय के निर्देशन में बनी इस फिल्म में वह एक किसान की पत्नी की भूमिका में दिखाई दी। फिल्म में बलराज साहनी ने मुख्य भूमिका निभाई थी। बेहतरीन अभिनय से सजी इस फिल्म में दमदार अभिनय के लिए उन्हें अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त हुई। वर्ष 1955 में फिल्मिस्तान के बैनर तले बनी फिल्म 'मुनीम जी' निरूपा रॉय की अहम फिल्म साबित हुई। इस फिल्म में उन्होंने देवानंद की मां की भूमिका निभाई। फिल्म में अपने सशक्त अभिनय के लिए वह सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री के फिल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित की गई। लेकिन, इसके बाद छह वर्ष तक उन्होंने मां की भूमिका स्वीकार नहीं की।

वर्ष 1961 में प्रदर्शित फिल्म 'छाया' में उन्होंने एक बार फिर मां की भूमिका निभाई। इसमें वह आशा पारेख की मां बनी। फिल्म में भी उनके जबर्दस्त अभिनय को देखते हुए उन्हें सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री के फिल्मफेयर पुरस्कार से सम्मानित किया गया। वर्ष 1975 में प्रदर्शित फिल्म 'दीवार' निरूपा रॉय के करियर की महत्वपूर्ण फिल्मों में शुमार की जाती है। यश चोपड़ा के निर्देशन में बनी इस फिल्म में उन्होंने अच्छाई और बुराई का प्रतिनिधत्व करने वाले शशि कपूर और अमिताभ बच्चन के मां की भूमिका निभाई।

फिल्म में उन्होंने अपने स्वाभाविक अभिनय से मां के चरित्र को जीवंत कर दिया। उनके सिने करियर पर नजर डालने पर पता चलता है कि सुपरस्टार अमिताभ बच्चन की मां के रूप में उनकी भूमिका अत्यंत प्रभावशाली रही है। उन्होंने सर्वप्रथम फिल्म 'दीवार' में अमिताभ बच्चन की मां की भूमिका निभाई। इसके बाद खून पसीना, मुकद्दर का सिकंदर, अमर अकबर एंथनी, सुहाग, इंकलाब, गिरफ्तार, मर्द और गंगा जमुना सरस्वती जैसी फिल्मों में भी वह अमिताभ बच्चन की मां की भूमिका में दिखाई दी।

वर्ष 1999 में प्रदर्शित फिल्म 'लाल बादशाह' में वह अंतिम बार अमिताभ बच्चन की मां की भूमिका में दिखाई दी। निरूपा रॉय ने अपने पांच दशक लंबे सिने करियर में लगभग 300 फिल्मों में अभिनय किया। अपने दमदार अभिनय से दर्शकों को मंत्रमुगध करने वाली निरूपा रॉय 13 अक्टूबर 2004 को इस दुनिया को अलविदा कह गई।