
श्वानों के हमले भी ज्वलंत मुद्दा
टिप्पणी टेलिस्कोप : प्रदीप जोशी
चुनाव की राजनीति के साथ देश आर्थिक, सांप्रदायिक, कूटनीतिक जैसे कई मुद्दों में उलझा है। इसके बीच मानवता का एक सामाजिक मुद्दा दबे पांव लोगों का शिकार कर रहा है, खासकर बच्चों का। जिसके आंकड़ों पर गौर करें तो यह राष्ट्रीय मुद्दे से कम नहीं है। सवा 6 करोड़ की संख्या के साथ भारत आवारा श्वानों के मामले में दूसरे क्रम पर है और सालाना 21 हजार से ज्यादा मौतें रेबीज से होती हैं। भारत में वर्ष 2019 से 2022 तक कुत्ते काटने के डेढ़ करोड़ मामले सामने आए हैं। ये दुनिया का 36 प्रतिशत है। अकेले गुजरात में 2019 व 2020 के दौरान डॉग बाइट के साढ़े चार लाख से अधिक मामले बताए गए हैं। 2021 व 2022 में डेढ़ लाख मामले प्रतिवर्ष दर्ज किए गए हैं। गुजरात में प्रतिदिन 400 से अधिक डॉग बाइट के मामले हो रहे हैं। चौंकाने वाली बात है कि अकेले सूरत में इस वर्ष छह महीनों में ही करीब 16,500 लोगों पर श्वानों ने हमला किया है। अस्पतालों में प्रतिदिन 50 से 100 मामले आ रहे हैं। इनमें श्वानों के झुंड द्वारा बच्चों को कई मिनट तक नोचने के मामले हो रहे हैं। श्वानों के पागल व हिंसक होने के मामले कुछ माह में इतने बढ़े हैं कि स्थानीय प्रशासन व विशेषज्ञ भी चौंक गए हैं। लोग रात में घर से निकलने से डर रहे हैं। कुछ महीनों से जिस तरह श्वानों के झुण्ड हिंसक हो रहे हैं, ऐसा पहले नहीं हुआ था।
सुप्रीम कोर्ट ने भी इसे देश की समस्या मानते हुए राज्यवार हल ढूंढने को कहा है। साथ ही सात साल में डॉग बाइट से मरने वाले लोगों व रोकथाम के लिए उठाए गए कदमों का हिसाब मांगा है। इस पर चिंता जताते हुए इसके लिए गाइडलाइंस बनाने की जरूरत भी पूछी है। यह टिप्पणी भी की जा रही है कि हम श्वानों से प्रेम करते हैं, मगर इन्हें पालने और संरक्षण देने वालों से संबंधित जानवर यदि हमला करता है तो उन पर टीकाकरण और इलाज के खर्च की जिम्मेदारी भी सौंपी जा सकती है।
पिछले एक वर्ष में डॉग बाइट्स का मुद्दा देश का ज्वलंत मुद्दा बन गया है। गुजरात, राजस्थान से लेकर केरल, हैदराबाद तक श्वान बच्चों को क्षतविक्षत कर रहे हैं। जानकार प्रश्न उठा रहे हैं कि क्या श्वान नरभक्षी बनते जा रहे हैं? कोरोना काल के बाद जानवरों में अचानक यह बदलाव दिख रहा है। इसका दूसरा पहलू देखा जा रहा है कि लोगों व बच्चों में श्वानों व सड़क पर आवारा पशुओं के प्रति नफरत और गुस्सा बढ़ रहा है।
जर्नल ऑफ कंपेरेटिव साइकोलॉजी की रिपोर्ट के मुताबिक, हर 11 में से 5 श्वान कुत्तों का मांस खा लेते हैं। कुत्तों में कैनिबलिज्म की आदत होती है। यानी जब कोई प्रजाति अपनी प्रजाति को ही खाने लगे तो ये कैनिबलिज्म कहलाता है।
कुत्ते और इंसान के बीच युगों से गहरा संबंध है। कुत्तों और होमो सेपियन्स के एक साथ विकसित होने के प्रमाण भी मिले हैं। इसके बावजूद अब टीकाकरण, नसबंदी के अलावा आवारा पशुओं को लेकर बड़े बजट के साथ 'असरकारी ' उपाय व नीति बनाने की जरूरत है। स्थानीय स्तर पर कागजी टीकाकरण व नसबंदी के फर्जी आंकड़ों के साथ करोड़ों का बजट हजम करने की ईमानदारी से जमीनी पड़ताल करने की भी जरूरत है।
pradeep.joshi@in.patrika.com
Published on:
09 Sept 2023 02:28 pm
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