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यहां होती है सबकी मन्नत पूरी, पहाड़ों में विराजीं हरसिद्धि माता

रानगिर के पहाड़ों में विराजीं हरसिद्धि माता, माता हरसिद्धि के मंदिर का निर्माण कब, कैसे हुआ, इसका कोई प्रमाण नही है; परन्तु यह मंदिर अतिप्राचीन व ऐतिहासिक है

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Khandwa Online

Oct 13, 2015

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पहाडों और घने जंगलों के बीच रानगिर में विख्यात हरसिद्धि माता का
मंदिर
है। यह मंदिर क्षेत्र में काफी प्रसिद्ध है। यहां पर दर्शन के लिए दूर-दूर से श्रद्धालु मां के दर्शन के लिए आते हैं। यहां पर मां के दरबार में चैत्र एवं शारदीय नवरात्रि पर मेला लगता है। मंदिर के पुजारी ने बताया कि नवरात्र में लोग मां को जल अर्पित करने के लिए दूर-दूर से आते हैं। मंदिर में सुबह से ही पूजन शुरू हो जाता है। रात में जागरण होता है।

मन्नत होती है पूरी

मान्यता है कि माता से जो भी मन्नत मांगते हैं वह पूर्ण होती है। इसी कारण माता को हरसिद्धि माता के नाम से पुकारा जाता है। सिद्धिदात्री माता दिन में कई रूप धारण करने के लिए भी प्रसिद्ध हैं।

रानगिर का रहस्य

सिध्द क्षेत्र रानगिर के नाम को लेकर भी कई किवदंतियां प्रचलित है। किवदंती के अनुसार भगवान शंकर जी ने एक वार सति के शव को हाथों में लेकर क्रोध तांडव नृत्य किया था। नृत्य के दौरान सती माता के अंग टूट -टूट कर पृथ्वी पर गिरे थे। सती माता के अंग जिन जिन स्थानों पर गिरे वह सभी शक्ति पीठों के रुप में प्रसिद्घ है ऐसी मान्यता है कि रानगिर मे सती माता के राने (जांघ) गिरी थी और इसी लिए इस क्षेत्र का नाम रानगिर पड़ा।

माता का इतिहास

माता हरसिद्धि के मंदिर का निर्माण कब ओर कैसे हुआ इसका कोई प्रमाण नही है; परन्तु यह मंदिर अतिप्राचीन और ऐतिहासिक है। चर्चाओं के मुताबिक कुछ लोग इसे महाराजा छत्रसाल के द्वारा बनवाये जाने की संभावना व्यक्त करते है क्योंकि सन 1726 ईस्वी मे सागर जिले में महाराजा छत्रसाल के द्वारा कई वार आक्रमणों का उल्लेख इतिहास मे वर्णित है।

चरवाहे ने देखा तो लिया पाषाण रुप

हरसिद्धि माता के बारे में भी अनेको किवदंतियों प्रचलित है। एक किंवदन्ती के अनुसार रानगिर में एक चरवाहा हुआ करता था चरवाहे की एक छोटी बेटी थी चरवाहे की बेटी के साथ एक वनकन्या रोज खेला करती थी एंव चरवाहे की बेटी को अपने साथ भोजन कराती थी तथा रोज एक चांदी का सिक्का देती थी।

चरवाहे को जब इस बात की जानकारी लगी तो एक दिन छुप कर दोनों कन्याओं को खेलते देख लिया। चरवाहे की जेसे ही नजर वनकन्या पर पडी़ तो उसी समय वनकन्या ने पाषाण रुप ले लिया। बाद में चरवाहे ने पाषाण रुप धारण कर चुकी कन्या का चबूतरा बना कर उस पर छाया आदी की और यही से भी हरसिद्धि की स्थापना हुई। धीरे- धीरे जनसहयोग से मंदिर का निर्माण कराया गया।

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