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स्मृति शेष : फक्कड़ मिजाजी, पर स्वाभिमानी थे बैरागी जी, उदयपुर के साहित्‍यकारों ने बयां क‍िए अनुभव

वे अक्सर बताया करते थे ‘अगर मैं बस्ती से आटा मांगकर नहीं लाते तो घर में चूल्हा नहीं जलता।

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राकेश शर्मा 'राजदीप' / उदयपुर . प्रख्यात साहित्यकार बालकवि बैरागी का रविवार शाम निधन हो गया। उनके निधन पर उदयपुर शहर के साहित्यकारों ने बयां किए अपने अनुभव-

बालकवि से मेरा नाता 50 बरस पुराना था। उनको बालकवि का नाम मनासा की एक जनसभा में सन् 1952 में मुख्यमंत्री कैलाशनाथ काटजू ने उनकी एक कविता सुनने के बाद भावविभोर होकर दिया। फक्कड़ मिजाजी बालकवि बेहद स्वाभिमानी रचनाकार थे।

ऐसे बालकवि अचानक ही आज हम सबके बीच से उठकर चल दिए। लोगों को स्मरण होगा कि इसी साल मार्च महीने में उन्होंने झीलों की नगरी के प्रतिष्ठित सम्मान समारोह महाराणा मेवाड़ फाउण्डेशन सम्मान समारोह कार्यक्रम की अध्यक्षता की।


वे अक्सर बताया करते थे ‘अगर मैं बस्ती से आटा मांगकर नहीं लाते तो घर में चूल्हा नहीं जलता। इसीलिए मैंने पहला लेख ही ‘मंगत से मिनिस्टर ’ शीर्षक से लिखा। वे भले ही बरसों राजनीति में रमे रहे लेकिन कभी खुद पर राजनीति को हावी नहीं होने दिया।

वे कहा करते थे ‘भले ही मैं कांग्रेसी हंू और रहंूगा किंतु चिपकू और स्वार्थी कांग्रेसी कभी नहीं हो सकता। वे बड़ी बुलंदी से कहा करते थे कांग्रेस मेरी मां है , उसी के मंच पर एक कवि के रूप में मेरा जन्म भी हुआ है फिर भी कांग्रेसी होना मेरा पेशा नहीं और न राजनीति रोटी कमाने का जरिया ही।

- जैसा वरिष्ठ साहित्यकार महेन्द्र भानावत ने पत्रिका को बताया

मेवाड़ में शुरुआती दौर के कवि सम्मेलनों का श्रेय बैरागी जी की रचनाओं का जादू कुछ ऐसा था कि जयदेव जैसे संगीतकार उनसे गीत लिखवाने भोपाल आए। उस समय बैरागी शिक्षा मंत्री थे। उस दौर में ‘रेशमा और शेरा’ फिल्म के लिए 12 दोहों वाला जो गीत ‘तू चंदा मैं चांदनी..’ जब बैरागी ने लिखा वो लता की आवाज पाकर कालजयी हो गया।


इसी फिल्म से संबद्ध एक अजीब इत्तफाक यह भी रहा कि कालान्तर में अमिताभ बच्चन , सुनील दत्त, वहीदा रहमान और पर्दे के पीछे रही नर्गिस सहित स्वयं बालकवि बैरागी सांसद हो गए।

इसी तरह, मूलत: मनासा क्षेत्र के बालकवि का ससुराल चित्तौड़ के पास कनेरा होने से उनका जुड़ाव स्वत: मेवाड़ से हो गया। ऐसा माना जाता है कि मेवाड़ के शुरुआती दौर में कवि सम्मेलनों की नींव रखने का श्रेय सिर्फ उनको दिया जा सकता है।

आजादी के बाद कवि सम्मेलनों सहित राजनैतिक सभाओं में भीड़ जुटाने या बांधने का जिम्मा वे बखूबी उठाते रहे। लोग भले ही उनको स्थापित कवि के रूप में ही मानते रहे हों लेकिन जानकारों का मानना है कि मोतियों सी लेखनी के साथ उनका गद्य लेखन भी उतना ही प्रभावी और सरस था।
- जैसा कि श्रीकृष्ण जुगनू ने पत्रिका को बताया।