यह होती है विशेषता लॉन्ग-बिल्ड गिद्ध जिसे भारतीय गिद्ध कहा जाता है, जिसका वैज्ञानिक नाम जिप्सइंडिकस है। यह एक मध्यम आकार के मांसाहारी पक्षी है, जो भारी होते हैं। दिखावट में हल्के भूरे रंग का शरीर, गहरे रंग के उड़ान पंख, सफेद जांघें, और चौड़े पंख होते हैं। सिर और गर्दन काली होती है। जिन पर सफेद पंख होते हैं। उनकी चोंच लंबी, हल्की और मजबूत होती है। यह मुख्यतः मरे हुए जानवरों के शवों पर निर्भर रहते ळैं। इन्हें घेरकर खाते हैं।
आखिरी बार इतनी संख्या 2019 में दिखी थी : मेनार की प्राकृतिक आबोहवा व अनुकूल रहवास स्थानीय गिद्धों के अलावा प्रवासी गिद्धों को भी रास आ रही है। जो उदयपुर क्षेत्र पर्यावरण व पक्षी प्रेमियों के लिए सुखद समाचार है। पिछले वर्षों की तुलना में इस बार बहुत ही अधिक प्रजातियों एवं बड़ी संख्या में गिद्ध देखे गए हैं। मेनार में आखिरी बार इतनी संख्या 2019 में दिखी थी। उस समय इसी इलाके में 100 से अधिक गिद्ध पक्षी एक साथ दिखे थे। जिसे वाइल्डलाइफ फोटोग्राफर के दल ने कैमरे में कैद किया था। हालांकि उस समय 5 प्रजातियों के गिद्ध दिखे थे।
आईयूसीएन की रेड लिस्ट में ये वल्चर: मेनार में एक साथ लॉन्ग बिल्ड वल्चर, ग्रिफन वल्चर और सिनेरियस वल्चर को झुंड में देखा है। जिसमें लॉन्ग बिल्ड वल्चर आईयूसीएन की रेड लिस्ट में क्रिटिकलीएनडेन्जर्ड सूची में है। ग्रिफन वल्चर खतरे की सूची में है। मेनार में आमतौर पर इजिप्शियन वल्चर मेला ग्राउंड, भील बस्ती, मेनार रुंडेड़ा मार्ग, खोड़ियार माता मंदिर सहित मेनार बीएसएनएल ऑफिस के पीछे के क्षेत्र में दिख ही जाता है। लॉन्ग बिल्ड स्थानीय है, वहीं ग्रिफन वल्चर सर्दियों में प्रवास पर आता है।
बीमार मृत पशुओं के खाने से इनकी संख्या घटी : पेस्टिसाइड व डाइक्लोफेनिक के अधिक इस्तेमाल के चलते गिद्ध प्रजाति संकट में आ गई। फसलों में पेस्टिसाइड के अधिक प्रयोग से यह घरेलू जानवरों में पहुंचता है। जानवरों के मरने के बाद मृत पशु खाने से गिद्धों में पहुंचता है। पेस्टिसाइड से इनके शारीरिक अंग किडनी फैलियर हो जाते हैं। इससे प्रजनन क्षमता खत्म हो जाने के कारण आज गिद्ध संकटग्रस्त पक्षियों की श्रेणी में पहुंच चुके हैं। 1990 के दशक से ही देशभर में गिद्धों की संख्या गिरने लगी थी। गिद्धों पर यह संकट पशुओं को लगने वाले दर्द निवारक इंजेक्शन डाइक्लोफेनिक की देन थी। मरने के बाद भी पशुओं में इस दवा का असर रहता है। गिद्ध इन मरे हुए पशुओं को खाते हैं। ऐसे में दवा की वजह से गिद्ध मरने लगे। इसे ध्यान में रखकर केंद्र सरकार ने पशुओं को दी जाने वाली डाइक्लोफेनिक की जगह मैनॉक्लीकेन दवा का प्रयोग बढ़ाया है। यह दवा गिद्धों को नुकसान नहीं पहुंचाती।