राजस्थान सरकार ने लेम्पस व लघु वन उपज मंडी की व्यवस्था की
हमारे जंगलों में फल, सब्जियां, औषधीय पौधे, तेलीय वनस्पति व छोटे अनाज जैसे कई वन उत्पाद हैं, जिनकी पैदावार बढ़ाने और आधुनिक तरीके से मूल्य संवर्धन व वैज्ञानिक ढंग से दोहन कर बाजार में पहुंचाने की जरूरत है। इस दिशा में सरकार के स्तर पर प्रयास शुरू हुए हैं, लेकिन इस व्यवस्था को अधिक सुदृढ़ व पेशेवर रूप से अपनाए जाने की आवश्यकता है। बताते चलें कि छत्तीसगढ़ व मध्यप्रदेश में लघु वन उपज के लिए वन विभाग की पृथक इकाई कार्यरत है। हालांकि हमारे यहां सरकार ने लेम्पस व लघु वन उपज मंडी की व्यवस्था की है। यह भी पढ़ें – राजस्थान के ये विधायक बन गए सांसद, इन 5 विधानसभा सीटों पर अब होगा उपचुनाव वन धन योजना एवं पेसा कानून के बेहतर उपयोग की दरकार
केंद्र सरकार की ओर से शुरू की गई वन धन योजना के तहत प्रदेश में 2018-19 में वन धन विकास केंद्रों की शुरुआत की गई। जिसके तहत ट्राइफेड के जरिए 479 केंद्र बनाए गए। उदयपुर और सलूम्बर जिले में 148 वनधन विकास केंद्र संचालित हैं। हालांकि इनमें से 26 ही क्रियाशील है। इन केंद्रों के जरिए ग्रामीणों को वन उत्पादों के मूल्य संवर्धन के लिए प्रशिक्षित कर उत्पादों की बिक्री की जा रही है। उदयपुर जिले में 20.61 लाख तो सलूम्बर में 22.84 लाख के वन उत्पाद बेचे गए हैं। इसके अलावा ग्रामीण सीधे वनों से उपज को संग्रहित कर अपने स्तर पर भी स्थानीय बाजार में बेच रहे हैं। इसके अलावा पेसा कानून के भी प्रभावी क्रियान्वयन की जरूरत है।
इनकी पैदावार बढ़ाने की आवश्यकता
ऐसे कई वन उपज है, जिनकी पैदावार मेवाड़ के जंगल में या तो कम हो गई है या थोड़ी बहुत है तो इनको बढ़ाकर ग्रामीण आजीविका को बढ़ाया जा सकता है। सफेद मूसली इसका प्रमुख उदाहरण है। सफेद मूसली करीब पचास साल पहले आदिवासी अर्थअव्यवस्था का अहम हिस्सा था। लेकिन अतिदोहन से विलुप्त हो गया। फलों में देसी आम, जामुन, बिल्व पत्र, आवला, बैर, कोटबडी, ड्राइफ्रूट में चिरोंजी, तेल के लिए महुआ, सहजन, रामतिल, करंज, रतनजोत, औषधीय उत्पादों में सफेद मूसली, गोंद (प्राकृतिक रूप से स्रावित), शिकाकाई, गेनोडर्मा कवक, शहद, अदरक, छोटे अनाज में छेना, माल, कुर्री, वटी, कोदरा, सामा, मल्ची घास, बरसाती मशरूम आदि की बाजार में काफी मांग है। इसके अलावा काइया घास से मिलने वाले वैजयंती माला के प्राकृतिक मणिए, सेमल की रूई, पलाश, हल्दी, जैसे कई ऐसे पेड़-पौधे व वनस्पति हैं, जिनकी पैदावार का उपयोग कर व कुदरती वनों में कुछ बीज छोड़ते हुए इको फ्रेंडली अर्थ व्यवस्था की दिशा में बढ़ सकते हैं।
वन उत्पाद को कैसे मिले बाजार
मेवाड़ के जंगलों में मिल रहे कई प्रकार के वन उत्पाद, पैदावार से लेकर बाजार तक पहुंचाने के तौर तरीकों में बदलाव की दरकार मौजूदा बाजार में हर सीजन में आने वाली प्रमुख वन उपज
● महुआ : जिले के कोटड़ा झाड़ोल तहसीलों के फुलवारी अभयारण्य एवं आसपास के क्षेत्र में ही लगभग 3000 हजार महुआ के वृक्षों से प्रति वृक्ष पचास किलो फूल व 200 किलो डोलमा तक हर सीजन में प्राप्त होता है। दोनों की कीमत करीब 30-30 रुपए प्रति किलो मानते हुए सीजन में करीब दो करोड़ 25 लाख की आय ग्रामीणों को मिल जाती है। लोग इसे निजी जीवन में भी खाने पीने में काम लेते हैं। ● किकोड़ा : वर्षा ऋतु में करीब 40-50 दिन के सीजन में ही 60 से 120 रुपए किलो भाव के हिसाब से बिकता है। सीजनल बाजार करीब 36 लाख रुपए का है। यह सभी उत्पाद प्रकृति निशुल्क देती। जिसमें संग्रह के अलावा कोई लागत नहीं आती।
● सीताफल : सीताफल के मौसम में उदयपुर में यह करीब सौ दुकानों पर बिकता है। लगभग दो माह के सीजन में 60 से 100 रुपए प्रति किलो के हिसाब से बिकता है। प्रति सीजन करीब 18 करोड़ का बिक जाता है।
पत्तों से बनाएं यूज एंड थ्रो प्रोडक्ट
पर्यावरणविदों का कहना है कि पर्यावरण सुरक्षा के लिए प्लास्टिक से बने डिस्पोजेबल पत्तल-दोने आदि पर रोक लगनी चाहिए। मौजूदा दौर में ऐसी तकनीक विकसित हो चुकी है, जिसके जरिए पलाश, बरगद, तेंदू पत्ता, जोगन बेल के पत्तों से खूबसूरत यूज एंड थ्रो एवं इको फ्रेंडली उत्पाद बनाए जा सकते हैं। जहां प्लास्टिक उत्पादों को डिस्पोज करना पर्यावरणीय चुनौती है, वहीं पत्तों से बनने वाले उत्पाद न तो प्रकृति को नुकसान करेंगे और मवेशी भी इन्हें खाए तो कोई नुकसान नहीं होता।
वन उपज का उपयोग सेहत व पर्यावरण के लिए लाभप्रद
वन एवं पर्यावरण विशेषज्ञ डॉ.सतीश शर्मा ने कहा, हमारे जंगलों, चरागाहों, बीड़ों, वेस्टलेेंड व नदी नालों के किनारे तटीय वनों में भांति-भांति की वन उपज मौजूद है। फिलहाल इनको अधिकांशत: घरेलू उपयोग में ही लाया जाता है। यदि इन उत्पादों का वैल्यू एडिशन कर बाजार में लाया जाए तो इससे अर्थ व्यवस्था में बड़ा बदलाव लाया जा सकता है। फल, औषधीय वनस्पति, तेल उत्पादक, छोटे अनाज (लेसर मिलेट) जैसे कई ऐसे खाद्य एवं अन्य उपयोगी वस्तुएं देने वाली उपज हैं, जिनकी पैदावार भी बढ़ाई जा सकती है। वन उपज के उपयोग का सबसे बड़ा फायदा यह है कि बिल्कुल ऑर्गेनिक और इको फ्रेंडली हैं। इनका उपयोग सेहत व पर्यावरण दोनों के लिए लाभप्रद है।
खाद्य प्रसंस्करण इकाइयों की दरकार
आजकल कई लोग वीगन फूड (डेयरी उत्पाद रहित) खाना पसंद करते हैं। उदयपुर सहित मेवाड़ के जंगल में सीताफल की भरपूर पैदावार होती है, लेकिन इसका परम्परागत बाजार ही उपलब्ध है। यदि इसके पल्प का उपयोग कर आइस्क्रीम बनाने वाली खाद्य संस्करण इकाइयां यहां शुरू हो तो इसका अच्छा मूल्य मिल सकता है तथा कई बार बिक नहीं पाने के कारण फल खराब होने की समस्या से भी निजात मिल सकती है। इसके अलावा अन्य कई तरह की खाद्य प्रसंस्करण इकाइयों में वन उपज को ऑर्गेनिक फूड के तौर पर तैयार कर बाजार में ला सकती है।