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बाचा खान का यूपी से भी था खास रिश्ता

Published: Jan 20, 2016 04:01:00 pm

Submitted by:

Sujeet Verma

बाचा खान यूनिवर्सिटी पेशावर के पास ही खैबर पख्तूनवा रीजन में स्थित है।

लखनऊ. पाकिस्तान में आतंकियों ने बाचा खान यूनिवर्सिटी में कत्लेआम मचा दिया। इसमें बीस से ज्यादा स्टूडेंट्स की मारे जाने की खबर है। यह यूनिवर्सिटी पेशावर के पास ही खैबर पख्तूनवा रीजन में स्थित है। बाचा खान कोई और नहीं, बल्कि सीमांत गांधी के नाम से मशहूर अब्दुल गफ्फार खान को कहा जाता है। इनका एक खास रिश्ता यूपी से भी है, इन्होंने यूपी में रहकर अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से पढ़ाई की थी।
अब्दुल गफ्फार खान ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया था। महात्मा गांधी की तरह वह भी अहिंसा में विश्वास रखते थे और अंग्रेजों से लोहा लिया। पाक के सीमाप्रांत (बलूचिस्तान) में जन्मे खान एकमात्र पाकिस्तानी हैं, जिन्हें हिंदुस्तान ने भारत रत्न से सम्मानित किया। उनकी सच और धर्म की छवि देख 1988 में पाक सरकार ने उन्हें पेशावर में नजरबंद कर दिया, जिससे 20 जनवरी को उनकी मौत हो गई। खास बात यह भी है कि उन्हें पाकिस्तान नहीं बल्कि अफगानिस्तान के जलालाबाद में दफनाया गया था।
जमींदार परिवार में हुआ था अब्दुल गफ्फार खान

ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान का जन्म पाकिस्तान के पेशावर घाटी के उत्मान जई में एक समृद्ध परिवार मैं हुआ था। उनके पिता बहराम इलाके के एक समृद्ध ज़मींदार थे। गफ्फार पढ़ाई में होशियार थे। हाईस्कूल के अंतिम साल में उन्हें अंग्रेजी सरकार के अंतर्गत पश्तून सैनिकों के एक विशेष दस्ते में शामिल होने का प्रस्ताव मिला, लेकिन उन्होंने यह प्रस्ताव ठुकरा दिया क्योंकि उन्हें अच्छी तरह से पता था कि इस ‘विशेष दस्ते’ के अधिकारियों को भी उन्हीं के देश में द्वितीय श्रेणी का नागरिक समझा जाता था।
इसके बाद गफ्फार खान ने अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय में पढ़ाई की और आगे की पढाई के लिए अपने भाई की तरह लन्दन जाना चाहते थे, लेकिन कुछ कारणों से ऐसा नहीं हो सका। इसके बाद वे अपने पिता के साथ खेती का काम देखने-संभालने लगे।
आजादी की लड़ाई में भी थे शामिल

गफ्फार ने 1911 में वो पश्तून स्वतंत्रता सेनानी तुरंग जई के हाजी साहेब के स्वाधीनता आन्दोलन में शामिल हो गए। साल 1915 से लेकर 1918 तक उन्होंने पश्तूनों को जागृत करने के लिए लगभग 500 गांवों की यात्रा की, जिसके बाद उन्हें ‘बादशाह खान’ का नाम दिया गया।
उन्हें सीमान्त गांधी, बाचा खान के नाम से भी जाना जाता था। वे महात्मा गांधी के खास लोगों में गिने जाते थे। ब्रिटिश सरकार ने उन्हें ‘फ्रंटियर गाँधी’ के नाम से बुलाया था। उन्होंने ‘खुदाई खिदमतगार’ नाम से सामाजिक संगठन बनाया, जिसकी सफलता ने अंग्रेजी हुकुमत को बेचैन कर दिया था। नमक सत्याग्रह के दौरान 23 अप्रैल 1930 को गफ्फार खां के गिरफ्तारी के बाद खुदाई खिदमतगारों ने पेशावर के किस्सा ख्वानी बाजार में एक जुलूस निकाला था। अंग्रेजी प्रशासन ने उन पर गोलियां बरसाने का हुक्म दे दिया। इसमें 200 से 250 लोग मारे गए पर प्रतिहिंसा नहीं हुई। ये कमाल गफ्फार खां के करिश्माई नेतृत्व का था।
देश के बंटवारे से थे गफ्फार से दुखी

देश के विभाजन से गफ्फार खान बिल्कुल भी खुश नहीं थे। इसके बावजूद उन्होंने बंटवारे के बाद पाकिस्तान में शामिल होने का फैसला लिया। हालांकि, पाकिस्तानी सरकारों को उनकी निष्ठा पर हमेशा संदेह रहा। इस वजह से उन्हें ज्यादातर समय या तो नजरबंद या फिर जेल में रखा गया। इस वजह से वे बीमार भी पड़ गए। उन्हें इलाज के लिए कुछ समय के लिए इंग्लैंड जाना पड़ा। इसके बाद वहां से वे अफगानिस्तान चले गए।
साल 1987 में भारत सरकार ने दिया था भारत रत्न

अफगानिस्तान में लगभग 8 सालों तक निर्वासित जीवन बिताने के बाद 1972 में वे वापस लौटे पर बेनजीर भुट्टो सरकार ने उन्हें फिर गिरफ्तार कर लिया। साल 1987 में भारत सरकार ने उन्हें देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया। खान अब्दुल गफ्फार खान का निधन सन 1988 में पेशावर में हुआ जहाँ उन्हें घर में नजरबन्द रखा गया था। उनकी इच्छा के अनुसार उन्हें उनके जलालाबाद (अफगानिस्तान) स्थित घर में दफनाया गया।

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