तीन फरवरी 1916 को वसंत पंचमी को हुई। तब वह मोहन दास करमचंद गांधी के रूप में अपनी पहचान बना चुके थे। वह तीन फरवरी को काशी आए और अगले दिन यानी चार फरवरी को काशी हिंदू विश्वविद्यालय के स्थापना समारोह में शरीक हुए। वह अवसर भी यादगार है, हुआ कुंछ यूं कि स्थापना समारोह शुरू हो चुका था, महाराजा दरभंगा की अध्यक्षता में कार्यक्रम अपने रौ में था, तभी एक स्वयंसेवक ने महामना मदन मोहन मालवीय को एक पर्ची पकड़ाई। पर्ची देखते ही महामना मंच से उतरे और समारोह स्थल के बाहर की ओर तेजी से निकल गए। लौटे तो उनके साथ घुटनों तक धोती, लंबा कुर्ता, कंधे पर झोला और लाठी लिए एक दुबले-पतले व्यक्ति को देख लोगों का कौतूहल बढ़ा। लेकिन थोड़ी ही देर में लोगों को पता चल गया कि ये और कोई नहीं बल्कि मोहन दास करमचंद गांधी हैं। वह जब भाषण देने आए तो उसकी शुरूआत ही तीखी थी, विषय था नगर को जेलखाने में तब्दील कर देने जैसी सुरक्षा का। दरअसल उन दिनों वायसराय बनारस में ही थे और दो साल पहले ही दिल्ली में वायसराय पर बम फेका गया था। माना यह जा रहा था कि आरोपी रासबिहारी बोस 1915 में जापान जाने के पूर्व बनारस में ही रुके थे और लाहौर षड़यंत्र केस के नायक शचींद्र नाथ सान्याल सरीखे क्रांतिनायक शिष्य पैदा किए थे। उसी बनारस में बीएचयू की स्थापना के लिए वायसराय के आगमन पर शहर को छावनी में तब्दील कर दिया गया था। तब उन्होंने कहा था कि कोई बम फेक देता और वायसराय मारे जाते तो क्या ब्रिटिश साम्राज्य नष्ट हो जाता। ऐसे लाखों लोगों को घरों में कैद करना कहां का न्याय है। गांधी ने यहां तक कहा कि, एक व्यक्ति की सुरक्षा के लिए पूरे शहर को कैदखाना बना देना पड़े तो उससे बेहतर है कि वह व्यक्ति खुद मर जाए। उनके इस बयान पर एनी बेसेंट ने एतराज जताया तो गांधी का जवाब था कि आपके कहने से मैं चुप नहीं होने वाला। उन्होंने मंडप में बैठे राजा-महाराजाओं पर भी तल्ख टिप्पणी की। उसके बाद सभी ने वाकआउट कर दिया।