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आज भी कब्र में प्यार के लिए सिसकती हैं उमराव जान

काशी के फातमान में आज भी दफन है इस तबायफ के अंदर छिपा एक औरत का दर्द

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Sarweshwari Mishra

Sep 19, 2016

Umrao Jaan Tomb

Umrao Jaan Tomb

वाराणसी. उमराव जान के नाम से आप बखूबी परिचित होंगे लेकिन इस फिरदौस की सच्चाई शायद ही कोई जानता होगा। उमराव जान वह हैं जो आज भी इसी काशी की नगरी में आराम फरमा रहीं हैं। वाराणसी में उमराव जान का या फिर उमराव जान बनने की वह दास्तान है जो वाराणसी के फातमान स्थित कब्र में उनके साथ ही दफन हो गई। जिसे न तो सिनेमाई परदे पर जगह मिल सका और न ही किसी इबारत में।



कितने आराम से हैं कब्र में सोने वाले, कभी दुनिया में था फिर फिरदौस में, अब लेकिन कब्र किस अहले वफा की है अल्लाह-अल्लाह... ये पंक्तियां हैं मरहूम उमराव जान अदा की जिन्हें दुनिया एक तवायफ के रूप में ज्यादा और आजादी की दीवानी के रूप में कम जानती है। ये पंक्तियां फातमान स्थित कब्रिस्तान में उनकी कब्र की हकीकत भी बयान कर रही है, जो लगभग खंडहर हो चुकी है।



दीवाना बना देने वाली अवध की शान और फनकारी की जान उमराव जान ‘अदा’। अपने दौर की मशहूर व मारूफ तवायफ थी आज उनकी कब्र अन्दरूनी जिन्दगी की तरह टूट-फूट चुकी है।



किसी जमाने में उमराव के पिता नवाबों के कब्रों पर रोशनी किया करते थे, मगर अफसोस आज उनकी साहबजादी के कब्र पर सियापा छाया रहता है। फातमान में उमराव जान की कब्र की हालत उनकी हकीकत की जिन्दगी से बेहतर नहीं है। टूटे-फूटे कब्र के सिरहाने लगे पत्थर पर उर्दू जबान में लिखा है- वफात उमराव बेगम लखनवी यौमे-जुमा 27 जिकदा 1359 हिजरी और उसके नीचे लिखे शेर भूले-भटके आने वालों से कब्र की हकीकी जिन्दगी से अवगत कराती है।



एक वह दौर था जब उमराव जान की अदाओं उनके जलवों के हजारों दीवाने हुआ करते थे। उनका हुस्न और उनके आवाज की खनक लोगों के दिलों-दिमाग पर राज किया करती थी। शहर में चारों तरफ उनके गाने की धूम रहती जब भी मुजरा होता हजारों-हजार आदमी टूट पड़ते और आज एक दौर है कि उनका अंजुमन वीरान पड़ा है। गुब्‍बार ही गुब्‍बार है शायद ही कोई शख्स हो जो भूले से उनकी कब्र पर शमां जला जाए या अकीदत के दो फूल चढ़ा जाए।



आज भी तनहा हैं उमराव जान
अपनी कब्र में लेटी उमराव जान आज उतनी ही तनहा हैं जितनी तब थीं, जब वह अपने चाहने वालों की भीड़ में उस शख्स को तलाशती रहतीं जो उनके अन्दर जी रहे एक औरत का दर्दख्वार बन सके।


फिल्मकार भी नहीं बयां कर सके उमराव की हकीकत
मुजफफर अली व जेपी दत्ता सरीखे फिल्मकारों ने उमराव जान के फनकारी के जादू के उसी हिस्से को सत्तर एमएम के परदे पर फिल्माया जो बिकाऊ था और जो उन्हें दौलत व शोहरत दिला सकता था। उमराव के जादू को जब मुजफ्फर अली ने सत्तर एमएम की चमचमाती स्क्रीन पर साकार किया तो लोगों ने दांतों तले उंगलियां दबा ली थीं। 1981 में प्रदर्शित 145 मिनट की उमराव जान।


बनारस में घास से घिरी उमराव जान की कब्र
इस हिन्दी-उर्दू भाषाई फिल्म ने किसी फनकार के जज्बात और उसके संघर्ष की गाथा को जिस शिद्दत से परोसा था उसके लोग आज भी कायल हैं। न होते हुए भी उमराव जान खुद का तमाशा बनाने वाले इन फिल्मकारों को इज्जत दौलत व शोहरत सब कुछ दिला गई। शायद देना ही उनकी जिन्दगी का मकसद था, पाना नहीं।


अमरीन से बन गई उमराव
उमराव जान के उस स्याह पहलू पर किसी की नजर नहीं पड़ी जो उनके गुमनामी के आखिरी दिनों में उनके साथ गुजरी और आज भी वाराणसी में उनकी मौजूदगी का एहसास दिलाती है। आखिर जिन्दगी का वह कौन सा तजुर्बा था, जो उमराव जान को मोक्ष की नगरी काशी की तरफ खींच लाया और उम्र के आखिरी दिनों में यहीं की बनकर रह गयीं और इसी सरजमीं में दफन भी हुयीं। अमरीन से उमराव बनीं फैजाबाद की उस मासूम लड़की की बेबसी का तमाशा तो सेल्युलाइड के परदे पर तो सबने देखा मगर ढ़लती उम्र के बाद की कहानी शायद ही किसी को पता हो।

बात सन् 1857 की है। अंग्रेजों ने लखनऊ में तबाही का निजाम कायम कर दिया। चारों तरफ लूट खूंरेजी कत्ल सरे आम था। सब कुछ उजड़ गया। न राजे-रजवाड़ों का दौर रहा, न महफिलों मुजरों का। इन सबके साथ चौक की महफिलें भी बेनूर हुईं। इन सभी के साथ उमराव जान की जिन्दगी में झूमकर नाचने वाली तवायफ भी उजड़ चुकी थी। एक सच उनके साथ हमेशा लगा रहता कि हजारों चाहने वालों की भीड़ में जिन्दगी का सफर तन्हा तय करने वाली उमराव हमेशा भटकती रहीं। जिन्दगी के हालात जिस किसी को भी उनके पास ले गया वह उससे उतना ही दूर होता चला गया। सबकी चहेती होते हुए भी वह किसी की ना हो सकीं।



पहले मुजरे में ही सुल्तान शाह को दिल दे बैठी थी उमराव
पहला मुजरा लखनऊ के नवाब सुजाअत अली खां के लड़के की शादी में हुआ। उसी दिन नवाब सुल्तान शाह को दिल दे बैठीं। प्रेम परवान चढ़ा नवाब साहब रोज रात को मिलने आते। एक रात मजे की सोहबत में थें, शेर-ओ-शायरी का दौर चल रहा था कि एक बदमाश आ धमका। वह उमराव जान को जबरदस्ती ले जाने लगा काफी समझाने पर भी न माना। नवाब साहब से देखा न गया उन्होंने उस बदमाश को गोली मार दिया। चूंकि नवाब साहब को अपने इज्जत की ज्यादा पारवाह थी इसलिए उन्‍होंने आना ही छोड़ दिया। उमराव ने कई बार खबर भेजे, चुपके से कहीं मिलते रहे, मगर एक दिन सिलसिला ऐसा टूटा कि वह खुद टूट गयी। दिन कटे मगर बिना लज्जत के जिन्दगी का सफर चल रहा था कि एक दिन ठहराव सा आ गया। फैज अली का आना और उमराव का उससे लगाव ने उमराव को घर बसाने का सपना दिखाया मगर तवायफ किसी के घर की जीनत नहीं बन सकती शायद यह उमराव भूल गयी।



जब टूट गया उमराव का सपना
लखनऊ से उन्नाव जाना था, रास्ते में गढ़ी के राजा शम्भूनाथ सिंह को उसकी तलाश थी। पता चला और राजा ने उसे घिरवा लिया फैज तो भाग निकला मगर उमराव फंस गई। उस समय उमराव का घर बसाने का सारा सपना टूट गया। राजा शम्भूनाथ सिंह शायरों की कद्र करते थे सो उमराव का सारा हाल जानने के बाद रिहा कर दिया। अब उमराव ने तन्हाई अख्तियार कर लिया। मुजरा से दिल फिरता गया। धीरे-धीरे नाच गाने से सुब्दोस होकर हज को चली गई। वापसी के बाद कुछ दिन लखनऊ में रही अचानक एक दिन लखनऊ छोड़कर वाराणसी आ गई।




वाराणसी के दालमण्डी में रहती थी उमराव
सब कुछ उजड़ता चला गया। उम्र की ढ़लती रौ में वह काशी आ गईं। यही दालमण्डी के पास पत्थर गली में मकान लेकर रहने लगीं। अपने उम्र के बचे दिन उमराव ने यहीं काटे। जानकार बताते हैं कि उमराव जान वाराणसी में न तो महफिलें सजातीं और न ही मुजरा करतीं। सिर्फ नमाज पढ़तीं कुरान की तिलावत करतीं व अपने रब से माफी-तलाफी में दिन गुजारा करतीं थीं।

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बहुत कम लोग जानते हैं कि उमराव जान तवायफ के साथ अच्छी शायरा भी थीं। वह ‘अदा’ उपनाम से शायरी करती। सुल्तान साहब से इश्क होने पर लिखा करती थीं।उमराव जान के मशहूर होने के पीछे मुजरा के साथ-साथ उनकी शायरी का कमाल था।



जब उमराव ने ली थी अंतिम सांस
जिन्दगी के उस दौर में जब चमक-दमक व रंगीनियों से उमराव का दिल भर गया। नाचने व गाने से मन उब गया तब उन्‍होंने गुमनामी की जिन्दगी पसंद किया। तवायफ की तरह न रहकर औरत की तरह जीना चाहा। ऐसी जिंदगी जीने के साथ उमराव ने अपनी अंतिम सांस ली। फिर फातमान स्थित कब्रिस्तान में उन्हें दफनाया गया और साथ ही उमराव जान की जिन्दगी का आखिरी हिस्सा अन्धेरे में रह गया।
उन पर बनीं फिल्मों को देख कर लोग भले ही आंखें नम कर लेते हैं। एक तवायफ के अन्दर छिपी एक औरत का दर्द उन्हें सोचने पर मजबूर कर देता है।

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