नरेन्द्र वर्मा. भीलवाड़ा। राजा महाराजाओं के जमाने की स्वांग रचकर तमाशा दिखाने की बहरूपिया यानि भांड कला आधुनिकता की चकाचौंध एवं बदलते जमाने के बीच लुप्त होती दिख रही है। भीलवाड़ा के अंतरराष्ट्रीय बहरूपिया कलाकार जानकीलाल भांड की पीड़ा है किकला को सरकारी संरक्षण नहीं मिलने से अगली पीढ़ी इससे विमुख हो रही है। राजस्थान पत्रिका से बातचीत के दौरान उन्होंने कहा कि भांड कला को जीवंत रखते परिवार पालना अब मुश्किल हो गया है। Crisis on Jankilal’s Bahrupiya art
राजा महाराजाओं व सियासत काल में मनोरंजन के रूप में बहरूपिया कला को विशिष्ट दर्जा था। तब कई परिवार इस कला को संभाले थे। इसमें विविधिता लाने की कोशिश करते थे। राजा महाराज खुश होकर कलाकारों को अपनी जागीर तक दे देते थे। इनाम की बारिश होली, दीवाली, ईद व शुभ अवसरों पर होती रहती थी, लेकिन वक्त के साथ सब कुछ बदल गया है। सालों तक देश व दुनिया में बहरूपिया कला की धाक जमाने वाले कलाकार जानकी लाल से बातचीत हुई तो उनकी आंख छलक उठी। वे बोले-जब कद्रदान ही नहीं रहे तो इस कला की कद्र अब कैसे होगी।
देश-विदेश में मिली दाद
संगीत कला केंद्र भीलवाड़ा राजस्थान दिवस एवं विश्व रंगमंच दिवस पर जानकीलाल भांड को लाइफ टाइम एचीवमेंट अवार्ड दे चुका है। जानकीलाल अपने स्वांग से प्रदेश भर में खासी लोकप्रियता हासिल कर चुके हैं। जानकीलाल बताते है कि वह 81 वर्ष के हो चुके हैं। बहरूपिया कला उन्हें विरासत में मिली है। पहले दादा कालूलाल व पिता हजारी लाल इस कला को जीवंत रखे थे। इसी से पारिवार का पालन पोषण हो रहा था। अब ऐसा नहीं है, जहां राज दरबार के सामने प्रदर्शन कर मनोरंजन कर उन्हें हंसाते थे और हमारे को नजराने के रूप में कुछ आर्थिक मदद मिल जाती थी। वह 22 साल की उम्र में भीलवाड़ा आ गए और इसके बाद वह यहीं के हो कर रह गए।
कभी पठान तो कभी भोले बने
गत 65 साल से नाना प्रकार की वेशभूषा पहन लोगों का मनोरंजन कर रहे है। वह गाडोलिया लुहार, कालबेलिया, काबुली पठान, ईरानी, फ कीर, राजा, नारद,भगवान भोलेनाथ, माता पार्वती, साधु, दूल्हा, दुल्हन सहित विभिन्न स्वांग रचकर एवं उसके स्वरूप वेशभूषा पहनकर लोगों का मनोरंजन करते हैं। वह मेवाड़ी, राजस्थानी, पंजाबी व पठानी भाषा बेखूबी बोल लेते हैं। दो दशक पहले जिले में कई परिवार इस कला से जुड़े थे, लेकिन अब वह ही इस कला को संभाले हुए है।
लोग मंकी मैन के नाम से जानते थे
जानकीलाल बताते है कि उदयपुर लोक कला मंडल, मुंबई व जोधपुर तथा विदेशों में उन्हें कई खिताब मिले। दिल्ली में एक माह तक कार्यक्रम किया। वर्ष 1986 में लंदन और न्यूयॉर्क तथा वर्ष 1988 में जर्मन, रोम, बर्मिंघम और फि र लंदन गए थे। न्यूयॉर्क, दुबई, मेलबोर्न में भी उनकी कला को खास दाद मिली। वहां उन्हें लोग मंकी मैन के नाम से जानने लगे। विदेश में उन्होंने फ कीर व बंदर का रोल अदा किया था, जहां लोगों को खूब हंसाने का काम किया। अभी उम्र के ढलाने पर होने के बावजूद वह होली, दीपावली, ईद व अन्य त्योहार पर शहर में अपनी कला से लोगों का लोकानुरंजन करते हैं।
नहीं मिल सका आवास
वे बताते है कि मौजूदा राजस्व मंत्री रामलाल जाट ने एक दशक पूर्व जब राज्यमंत्री थे, खुश होकर नगर विकास न्यास के जरिए आवास देने की घोषणा की थी, लेकिन यह आज तक आवंटित नहीं हुआ। राज्य सरकार भी भांड कला को प्रोत्साहित नहीं कर रही है। हाल में राज्य सरकार ने प्रदेश के राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय ख्याति अर्जित कलाकारों को पांच हजार रुपए की सहायताकी घोषणा की थी, लेकिन यह उन जैसे कलाकारों के लिए थोथी साबित हुई है।
परिजन बोले, कैसे संभाले परम्परा
जानकीलाल बताते हैं कि उनकी खानदानी बहरूपिया कला को आगे बढ़ाने के लिए परिवार को कोई सदस्य आगे नहीं आ रहा है। जानकी के पुत्र लादूलाल बताते हैं कि इस कला को सरकार संरक्षण नहीं दे रही है। नई पीढ़ी अब पढ़ कर कुछ करना चाहती है। संकोचवश नई पीढ़ी यह काम भी नहीं करना चाहती है। नाना प्रकार के रूप धरने के लिए उसी के अनुरूप स्वांग धरते आकर्षक परिधान भी बनाने पड़ते हैं। इसमें काफी खर्चा आता है। उनके पिता को बहरूपिया के स्वांग में देख कर दाद बहुत मिलती है, लेकिन नजराना देने के लिए लोगों के हाथ अब जेब में नहीं जाते हैं।
वक्त ने भी बहुत कुछ बदला
जानकी लाल के परिजन बताते हैं कि देश में हर हाथ में मोबाइल है। टीवी की बड़ी दुनिया है।मनोरंजन के काफ ी साधन है। ऐसे में लोग भांड कला के तरफ कम आकर्षित होते है, शादी समारोह व आयोजनों से भी बुलावे नहीं आते है, लेकिन उनका परिवार पौराणिक बहरूपिया कला को अभी भी जीवित रखे हुए है।