चित्तौडग़ढ़
संकट के समय जिन भामाशाह ने महाराणा प्रताप को अपना सम्पूर्ण धन मेवाड़ की रक्षा के लिए सौंप दिया था, उन्हीं भामाशाह की हवेली अब खुद के संरक्षण की मोहताज है। अस्तित्व खोने के कगार पर पहुंच चुकी जीर्णशीर्ण हवेली अब गंदगी से सराबोर है और वहां बंदर और श्वान शौच कर रहे हैं।
मेवाड़ के शासक रहे महाराणा प्रताप के सिपहसालारों में एक नाम भामाशाह का भी था। भामाशाह उस जमाने के सेठ थे और उन्हीं के नाम से विश्व विरासत चित्तौड़ दुर्ग पर हवेली का निर्माण किया गया था। दुर्ग के अन्तिम द्वार रामपोल को पार करने के बाद व्यूह पॉइन्ट के बायी तरफ तोपखाने के सामने हवेली तक पहुंचने का मार्ग है। अहम बात यह भी है कि इसी के पास ही पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग का दफ्तर भी है, लेकिन विभागीय अधिकारियों को इसकी बदहाली नजर नहीं आती। इस हवेली के मुख्य द्वार पर कुंदा लगा रखा है। अन्दर प्रवेश करते ही बन्दरों की शौच और हर तरफ पसरी गंदगी और कंटिली झाडिय़ां नजर आती है। कदम आगे बढाएं तो पुरानी फर्श पर काई और कालिख नजर आती है। गहराई तक जाने पर वहां खड़ी इमारत के पत्थर अपनी सुन्दरता बयां करते नजर आते हैं।
मेवाड़ के इतिहास के पन्नों पर भले ही भामाशाह के नाम को श्रद्धा से उकेरा गया हों, लेकिन चित्तौड़ दुर्ग पर आने वाले देशी-विदेशी पर्यटक भामाशाह के बारे में नहीं जान पाते। कारण साफ है कि भामाशाह हवेली की अब ‘कद्रÓ नहीं है। हवेली तक पहुंचने के लिए साफ-सुथरे मार्ग का अभाव है। हवेली में साफ-सफाई और जीर्णोद्धार नहीं होने के साथ ही संकेतक लगा हुआ नहीं होने से न तो पर्यटकों की नजर हवेली तक पहुंचती है और न ही कोई गाइड उन्हें वहां तक ले जाता है।
पाली जिले के सादड़ी में जन्मे थे भामाशाह
भामाशाह का जन्म राजस्थान के मेवाड़ राज्य में वर्तमान पाली जिले के सादड़ी गांव में 28 जून 1547 को ओसवाल परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम भारमल था जो रणथम्भौर के किलेदार थे। मेवाड़ की रक्षा के लिए संकट के समय उन्होंने अपनी धन-संपदा महाराणा प्रताप को अर्पित कर दी थी। मेवाड़ की रक्षा के लिए उन्होंने दिल्ली की गद्दी का प्रलोभन भी ठुकरा दिया था। दानवीरता के कारण भामाशाह इतिहास में अमर हो गए।
बारह साल तक 25 हजार सैनिकों का निर्वाह
हल्दी घाटी के युद्ध के बाद महाराणा प्रताप के लिए भामाशाह ने अपनी निजी सम्पत्ति से इतना धन दिया कि जिससे 25 हजार सैनिकों का बारह वर्ष तक निर्वाह हो सकता था।
अब भी दानदाता को भामाशाह के नाम से पुकारते हैं
बरसों पहले भामाशाह ने अपना धन अर्पित किया था, लेकिन अब भी यदि कोई दानदाता किसी काम में दान देता है तो उसे भामाशाह के नाम से ही पुकारा जाता है।
पीढियों ने बढाया मान
भामाशाह के बाद उनके पुत्र जीवाशाह को महाराणा प्रताप के पुत्र अमरसिंह ने भी प्रधान पद पर बनाए रखा। जीवाशाह के बाद उनके पुत्र अक्षयराज को अमरसिंह के पुत्र कर्णसिंह ने प्रधान पद पर ही रखा। इस तरह एक ही परिवार की तीन पीढियों ने मेवाड़ में प्रधान पद पर स्वामी भक्ति और इमानदारी से से कार्य कर जैन धर्म का मान बढाया।