ग्वालियर. सुरों की अखंड परंपरा और ब्रह्मनाद की साधना का प्रतीक विश्वविख्यात 101वां तानसेन समारोह अपने चरम की ओर अग्रसर है। समारोह के चौथे दिवस गुरुवार की प्रातःकालीन सभा ने संगीतप्रेमियों को आध्यात्मिक अनुभूति से सराबोर कर दिया। शीतल प्रभात की नीरवता में जब रागों की सरगम, बांसुरी की करुण तान और तालों की सधी थाप गूंजी, तो तानसेन की धरती मानो सुरों की उजास में नहा उठी।
प्रातःकालीन सभा का शुभारंभ साधना संगीत कला केंद्र, ग्वालियर के विद्यार्थियों द्वारा प्रस्तुत ध्रुपद गायन से हुआ। राग आसावरी में चौताल निबद्ध रचना “रतन सिंहासन ता पर आसन” की गंभीर और अनुशासित प्रस्तुति ने सभा को गरिमा प्रदान की। पखावज पर अविनाश महाजनी और तबले पर बसंत हरमलकर की संगत सराहनीय रही।
इसके पश्चात नोएडा से पधारे पंडित चेतन जोशी ने बांसुरी पर प्रातःकालीन राग बसंत मुखारी की मनोहारी प्रस्तुति दी। आलाप में ध्यानमय शांति और जोड़–झाले में लयात्मक ऊर्जा का सुंदर संतुलन दिखाई दिया। रूपक और तीनताल की रचनाओं में रागदारी की सूक्ष्मता श्रोताओं को बाँधती चली गई। तबले पर पंडित हितेंद्र दीक्षित की संगत ने प्रस्तुति को ऊंचाई दी।
सभा में आगे प्रयागराज के खयाल गायक डॉ. ऋषि मिश्रा ने राग शुद्ध सारंग में सधे हुए आलाप और बंदिशों के माध्यम से श्रोताओं को मुग्ध किया। इसके बाद भैरवी का टप्पा और मिश्र खमाज की ठुमरी ने कार्यक्रम में रंजकता घोल दी।
इंदौर के तबला वादक सारंग लासुरकर के एकल तबला वादन ने तीनताल में घरानेदार शैली का प्रभावशाली प्रदर्शन किया। सभा का समापन नासिक के खयाल गायक आशीष विजय रानाडे की राग वृंदावनी सारंग में भावपूर्ण प्रस्तुति से हुआ।
मध्यप्रदेश शासन के संस्कृति विभाग के अंतर्गत आयोजित यह समारोह भारतीय शास्त्रीय संगीत की समृद्ध विरासत को नई पीढ़ी तक पहुँचाने का सशक्त माध्यम बन रहा है।