जयपुर। गणेश चतुर्थी परकजरी, ठुमरी और चैती की शक्ल में लोक गीतों ने जयपुरवासियों को गजानन के प्रति वात्सल्य, श्रृद्धा और भक्तिभाव से भर दिया। बनारस घराने की अवधी शैली में ‘गणपति को लग गई नजरिया, गौरा मैया टीका लगा दोÓ ने बप्पा के मनमोहक रूप को न केवल साकार किया बल्कि देवताओं के गणपति के प्रति दुलार का दृश्य भी आंखों के आगे खींच दिया। राजस्थान इंटरनेशनल सेंटर में चल रहे पांच दिवसीय ‘सप्तरंगÓ संगीत समारोह के तहत मंगलवार को बनारस घराने की प्रसिद्ध लोक गायिका और सिंगिंग लीजेंड दिवंगत गिरिजा देवी की शिष्या मालिनी अवस्थी ने सभागार के माहौल में बनारसी संगीत की ऐसी मिठास घोली की दर्शक सीट से उठकर मंच के सामने नाचने लगे। बनारस की समृद्ध लोक परंपराओं को समर्पित उनकी प्रस्तुतियों में लोकगीतों ने धनक के साथ एंट्री ली।
तीन ताल में विभिन्न स्वरूप दिखाएदूसरे दिन की शुरुआत एक बार फिर रिम्पा शिवा ने अपने सोलो तबला वादन से की। उन्होंने तीन ताल में प्रस्तुति दी और ताल के विभिन्न स्वरूपों को तबले की थाप से साकार किया। उन्होंने विभिन्न प्रकार के पर्णों और कठिन तिहाइयों को मुश्किल लयकारी के साथ प्रस्तुत किया। दर्शकों को उन्होंने हेलीकॉप्टर, ट्रेन की आवाज भी निकालकर दिखाई। रिम्पा ने लय और लयकारी से खेलते हुए अपनी प्रस्तुति से देखने वालों को अचरज में डाल दिया। वहीं उनके बाद डॉ. राजर्षि कुमार कसौधन ने बांसुरी से भोपाली राग में ‘गोंविंद बोलो हरी गोपाल बोलोÓ और पहाड़ी धुन सुनाईं।

हमारा भारत ‘लोक में बसता है
पत्रिका प्लस से खास बातचीत में मालिनी ने कहा, ‘लोक ही भारत है। लोकगीतों में भारत की जो छवि दिखती है, वह कला के किसी अन्य स्वरूप में दुर्लभ है। भारत जो है वह देश की मिट्टी और स्थालीय लोकगीतों की सदियों से चली आ रही विरासत में विद्यमान है। हमारे लोकगीतों में भारत का जो अक्स दिखता है, वह भारतीय दर्शन का साश्वत रूप है। राजस्थानी लोकगीतों में उनका मनुहार, इतिहास और वैश्विक अपील दिखाई देती है। यहां की लोक कलाओं के चटख रंग, मांड गायकी और विरह के गीत, उत्सव का संगीत पूरी दुनिया में जाना जाता है।

लोकगीतों को आगे लाना साहस का काममालिनी ने बताया कि उन्होंने जिस दौर में उन्होंने लोकगीतों में कॅरियर बनाने और इसे गुमनामी से निकालकर मुख्यधारा के संगीत के रूप में मंच तक लाने की ठानी, वह बहुत साहस का काम था। क्योंकि उस दौर में लोक संगीत और शास्त्रीय संगीत के बीच खाई-सी थी। मैं शास्त्रीय गायन पंरपरा की साधक हूं, लेकिन इसके बावजूद लोकगीतों को आगे लाने के लिए उस समय कदम बढ़ाना किसी दुस्साहस से कम न था। हालांकि, मुझे बहुत हतोत्साहित किया गया, मेरे गायन को गंभीरता से नहीं लिया गया, आलोचना भी हुई, लेकिन मुझे खुद पर पूरा विश्वास था। मैंने इसे अपना कर्तव्य संझकर किया क्योंकि मेरा उद्देश्य कला के माध्यम से पैसा कमाना नहीं था, इस विरासत को जीवित रखना था।
कमर्शियल सक्सेस भी जरूरी हैमैंने दादी-नानी, ताई, काकी के मुंह से लोकगीत सुनकर उन्हें समझा है। इसलिए लोकगीतों, खासकर बनारसी, अवधी, बुंदेली और ब्रज से मेरे दिल को खास लगाव है। कड़वा सच यह है कि जो चीज कभी मंच के लिए बनी ही नहीं थी, वह आज मंच पर गाई-बजाई जा रही है। लोकगीत घर-आंगन चौपाल का संगीत है, लेकिन अब न तो आंगन बचे न ही चौपाल की मंडली, इसलिए लोकगीतों को जिंदा रखने के लिए इन्हें मंच से गाना हमारी मजबूरी है। अब तो घर की शदी-ब्याह में २० लोग ढोलक बजाने को नहीं जुटते, सास-बहू सीधे डीजे पर मिलती हैं। चलन के खत्म होने से इन चीजों को मंच पर आने को मजबूर होना पड़ा। लोगों को तो यह तक भान नहीं था कि इस संगीत का भी इतना बड़ा मार्केट है। ऑडियो से विजुअल माध्यम ने इसमें और सहयोग दिया।
फिल्मों में गांव नहीं, इसलिए लोकगीत भी नहीं६०-७० के दशक की फिलमों में लोक यानी गांव किरदार के रूप में मौजूद होता था। अब फिल्मों में गांव नहीं रहे, इसलिए लोकगीत भी फिल्मी संगीत से दूर हो गए हैं। अब ‘गंगा जमुनाÓ, ‘मदर इंडियाÓ और ‘नदिया के पारÓ कहां है। मेट्रो शहर की कहानियों में गानों का स्पेस भी खत्म होता जा रहा है। इसलिए लोकगीतों को हम आज की फिल्मों में कम ही देख रहे हैं।