
Bakrid 2017
आगरा। इस्लाम अपने मानने वालों और न मानने वालों के लिए मुकम्मल सामाजिक ढांचा पेश करता है। इस समाज के लिए इस्लाम ने रानीति करने, काननू बनाने, न्याय करने, सरकार चलाने, युद्ध और शांति की पॉलिसी से लेकर बीवी बच्चों, दोस्तों और रिश्तेदारों से ताल्लुकात, रास्ते चलने, कारोबार, आर्थिक एजेंडा और दुख सुख में एक्शन, रिएक्शन के समस्त कायदे बताए हैं। इंसान की प्रकृति में ये बात शामिल है, कि वह जीवन की भागदौड़ से थोड़ा वक्त निकाल कर अपने घरवालों, के साथ कुछ समय गुजारे। इस्लाम ने इस प्राकृतिक ख्वाहिश को पूरा करने के लिए साल में दो अवसर मुकर्रर किए। एक रमजान के रोजों के बाद ईदुलफितर और दूसरी ईदुलअजहा।
ये है इबादत का दिन
ईद-उल-अजहा को भारतीय उप मह़ाद्वीप में बकरीद या ईदुलजुहा कहते हैं। बकर अरबी भाष में गाय, बैल, भैंस आदि को कहते हैं, लेकिन इसका इस्लामी नाम ईदुलअजहा है अर्थात कुर्बानी का दिन। किसी समय इन जानवरों की कुर्बानी के नाम पर कम पढ़े लिखे लोगों ने इसका नाम बकरीद रख दिया, जो बिगड़ कर बकरा ईद हो गया। मगर हमें इसके सही नाम अर्थात ईदुलअजहा की और लौट जाना चाहिए। ईदुल फितर हो या ईदुलअजहा। ये अन्य भारतीय त्योहारों होली, दीपावली, क्रिसमस आदि की तरह अनलिमिटेड फन एंड इंज्वाय जैया त्यौहारा नही है। यदि दिन मुसलमानों के लिए एक्स्ट्रा कंट्रोल और एक्स्ट्रा आर्डिनरी इबादत का दिन है। ईदुलजुहा का दिन हमें अपने पैगम्बर हजरत इब्राहीम व हजरत इस्माईल की कुर्बानी की याद दिलाता है। ईसाइयों की बाइबिल, यहूदियों की तौरते और इस्लाम की किताब कुरआन मजीद में यह किस्सा तफसील से जिक्र किया गया है।
ये है कहानी
ईद-उल-अजहा की कुर्बानी का इतिहास उतना ही पुराना है, जिनता दुनिया में मजहबों या इंसानियत का। यह किस्सा अबसे लगभग 4000 हजार वर्ष पूर्व साउदी अरब के रेगिस्तान में स्थित एक छोटे पहाड़ के नजदीक पेश आया, जिसका नाम सफा मरवा था। हजरत इब्राहीम अल्लाह के पैगम्बर थे। उनके पुत्र ईस्माइल व इस्हाक भी पैगम्बर हुए। इब्राहीम ने सपने में देखा कि अल्लाह उन्हें हुक्त देता है कि अपनी सबसे प्रिय वस्तु को उनके लिए कुर्बान करो। हजरत इब्राहीम ने सबसे कीमती चीज उंट कुर्बान कर दी। इसके बावजूद उनको बराबर वही स्वप्न आता रहा। इंत में उनहे समझ आया कि उन्हें सबसे ज्यादा प्यार अपने बेटे से है। उन्होंने बेटे को कुर्बान करने की ठान ली। उन्होंने अपने किशोर बेटे ईस्माइल को इस संबंध में बात की तो उसने आदेश पूरा करने की बात कही। अरफात के मैदान में हजरत इब्राहीम ने जब इस्माईल को कुर्बान करने के लिए लिटाया और छुरी गले पर रखी तो अल्लाह ने पैगाम भेजा कि सही मायने वह अल्लाह से प्रेम करते हैं। इसके बाद अल्लाह ने बेटे के बदले दुंबा कुर्बान करने का आदेश दिया। ईदुलअजहा मुसलमानों को यही कुर्बानी याद दिलाता है।
ये है कुर्बानी का अर्थ
कुर्बानी का अर्थ केवल जानवरों का खूना बहाना नहीं है। अल्लाह को जानवरों का खून या गोश्त नहीं पहुंचता। उसके पास तो इंसान की भानवाएं, धर्म से उसका लगाव और सबसे बढ़कर तकवा पहुंचता है। तकवा का मतलब है प्रत्येक बुराई से बचने का इरादा और अच्छे कार्य करने का हार्दिक संकल्प। ईदुलजुआ के जरिए मुसलमान को यह पाठ याद कराया जाता है कि मानव मात्र की भलाई के लिए अपना सब कुछ कुर्बान करने के लिए हमेशा तैयार रहो। अल्लाह की निगाह में उस कुर्बानी की कोई कीमत नहीं, जिसके पीछे तकवा, परहेजगारी, नेकी फैलाने बुराई रोकने, अल्लाह के हुक्म को सर्वोपरि मानने और उस पर अमल करते हुए अपने हर प्रकार के नुकसान को बर्दाश्त करने की भावना न हो। मुसलमानों को इस पर गौर करने की जरूरत है। अल्लाह को प्रेम भावना से खर्च किए एक रुपये की कुर्बानी पसंद है। दिखावे के लाखों रुपये दान देने की अल्लाह को जरूरत नहीं। दो हजार रुपये का जानवर कुर्बान करने का भी उतना ही सवाब मिलता है, जितना 20 हजार या दो लाख रुपये के जानवर का।
लेखक
डॉ. सैयद इख्तियार जाफरी
Published on:
31 Aug 2017 10:15 am
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