विपश्यना या विपस्सना एक बेहद प्राचीन ध्यान की विधा है। कहा जाता है इसका जिक्र भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में भी किया है। वहीं ऋग्वेद में भी इसका उल्लेख है। समय के साथ ये पूरी तरह विलुप्त हो चुकी थी। करीब २५०० वर्ष पूर्व महात्मा गौतम बुद्ध ने फिर से इसकी खोज की और इसे पुनर्जीवित किया था। विपश्यना का अर्थ है कि जो वस्तु जैसी है, उसे उसी रूप में सहजता के साथ देखना। यह अंतर्मन की गहराइयों तक जाकर आत्म-निरीक्षण द्वारा आत्मशुद्धि की साधना है।
इसकी शुरुआत सांसों से होती है। सबसे पहले सुखासन, वज्रासन या किसी भी आसन में बैठ जाएं। इसके बाद व्यक्ति को सांसों को साक्षीभाव में देखना सिखाया जाता है। नाक के दोनों छिद्रों पर ध्यान केंद्रित करके सांस पर ध्यान देना है कि सांस कब आयी और कब गई। इसे सहज रूप में ही देखना होता है। न लंबा खींचते हैं न छोटा करते हैं। सहजता से सांस जिस तरह आ रही है और जिस तरह जा रही है, बस उसे स्वाभाविक रूप में देखना या नोटिस करना होता है। इस बीच यदि किसी तरह का विचार आता है तो उसे आने दें और फिर से ध्यान सांसों पर टिका लें
जब सांसों पर आपका ध्यान रुकने लगता है तब आगे की प्रक्रिया सिखाते हैं। इसके बाद मन को सिर के सबसे उपरी हिस्से में केंद्रित कराया जाता है। जब ध्यान सिर के उपरी हिस्से पर पूरी तरह होता है, तब हमें पता चलता है कि शरीर के उपर के हिस्से में क्या चल रहा है। किसी को पल्स चलती हुई महसूस होती है तो किसी को कुछ और। इसके बाद अपने ध्यान को धीरे धीरे शरीर के अंदर भ्रमण कराते हुए माथे, आंख, नाक, कान, गर्दन, कंधा, सीना, पीठ, कमर, पेट, जांघ, पैर से लेकर तलवे तक हर हिस्से में ले जाते हैं और थोड़ी थोड़ी देर के लिए रोककर वहां की गतिविधि को महसूस किया जाता है। इस बीच विपश्यना करने वाले को शरीर के अलग अलग हिस्सों में अलग अलग अनुभूति होती है। कहीं ठंडक, कहीं जलन, कहीं आवाज, कहीं दर्द, कहीं गुदगुदी तो कहीं खुजली आदि। लेकिन आपको हर स्थिति को सहन करके शांत रहना होता है और खुद पर नियंत्रण रखकर किसी भी तरह की प्रतिक्रिया देने से खुद को रोकना होता है। यानी चाहे कष्ट महसूस हो या खुशी आपको उसी मुद्रा में बैठना होता है जिसमें आप बैठे हैं। शरीर का भ्रमण करते हुए जब आप पैर के आखिरी छोर तक पहुंच जाते हैं, इसके बाद फिर से सिर तक उसी तरह रिवर्स करते हुए वापस जाना होता है। सिर से पैर तक जाने के बाद व्यक्ति जब पैर से सिर तक वापस आ जाता है तब इसे विपश्यना का एक चक्कर माना जाता है।
धीरे धीरे हम अभ्यास करते हुए शरीर के अंदर बारीकी से भ्रमण करना सीख जाते हैं। इस अभ्यास के बाद व्यक्ति शरीर की उन गतिविधियों को लेकर भी सजग हो जाता है जिसके बारे में आमतौर पर उसे पता ही नहीं चलता। इसके बाद आखिरी में मंगल मैत्री यानी सभी को जिन्होंने आपका कभी न कभी दिल दुखाया है उन्हें उनकी गलतियों के लिए माफ करें और सभी से अपनी गलतियों की माफी मांगे। मन पर किसी के प्रति अच्छा या बुरा कोई भाव न रखें। समभाव में रहें।
विपश्यना का उद्देश्य वर्तमान में रहकर जीवन जीने की कला सिखाना है। नियमित इस अभ्यास से आत्मशुद्धि होने लगती है। मन पर व्यक्ति का वश हो जाता है और वो इसे भटकने नहीं देता। जीवन में चाहे सुख का पड़ाव हो या दुख का, व्यक्ति हर हाल में समभाव में रहना सीख जाता है। यानी दुख में बहुत दुखी नहीं होता और सुख में बहुत सुखी नहीं होता। वो इन्हें सिर्फ जीवन के एक घटनाक्रम के रूप में देखना सीख जाता है। व्यक्ति की एकाग्रता बढ़ती है और बड़ी से बड़ी मुश्किल में भी वो विचलित नहीं होता, साथ ही बड़ी से बड़ी खुशी में अति उत्साहित नहीं होता। जीवन में सुख दुख का तालमेल बैठाना सीखकर वर्तमान में जीना सीख जाता है। वो जिस काम में लगता है, उसमें सफलता हर हाल में प्राप्त करता है।