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पुरुषार्थ ही सफलता की पहली और अंतिम सीढ़ी है, पढ़िए ये कहानी

चींटी यह कहकर अपनी चाल नहीं रोकती कि मैं हाथी की बराबरी नहीं कर सकती। पुरुषार्थ करती हुई वह पहाड़ पर चढ़ जाती है।

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purusharth

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एक व्यक्ति को चोरी करने की घृणित आदत पड़ गई। कहा जाता है कि कोई भी चोर अपने आपको कितना भी चतुर क्यों न समझे, किन्तु एक न एक दिन वह पकड़ा ही जाता है। एक दिन सिपाहियों ने उस चोर को पकड़ने के लिए पीछा किया। चोर अपना बचाव करने के लिए पूरी शक्ति लगाकर भाग रहा था। इस तरह चोर और सिपाहियों के मध्यम दौड़ की प्रतियोगिता सी हो गई।

प्राण बचाने के लए चोर गांव के बाहर एक मंदिर में पहुंचा। उसने करुणापूर्वक स्वर में देवी मां से स्वरक्षा की प्रार्थना की। चोर के कातर एवं विनम्र शब्दों को सुनकर देवी मां का कोमल हृदय द्रवित हो गया। देवी मां ने कहा- तुम घबराओ नहीं, राजपुरुषों का दृढ़ता से सामना करो, मैं तुम्हारे साथ हूं।

सामना करने की बात सुनकर चोर का शरीर कांपने लगा। वह बोला- मां यदि मुझमें सामना करने का सामर्थ्य होता तो मैं तुम्हारी शरण में क्यों आता? अतः अब मेरी रक्षा करना आपके ही हाथ में है।

यह सुनकर देवी ने कहा- यदि तुम सामना करने में असमर्थ हो तो ऐसा करो कि अपनी पूरी शक्ति लगाकर चिल्लाओ। ऐसा करने से राजपुरुष लौट जाएंगे।

तब चोर ने कहा- मां, भय के करण मेरा गला रुँध गया है और मेरी वाकशक्ति भी समाप्त हो गई है तो मैं चिल्लाऊं कैसे? तब देवी ने कहा- तुम मंदिर का द्वार बंद करके निश्चित होकर सो जाओ। द्वार बंद देखकर राजपुरुष स्वतः लौट जाएंगे।

घबराते हुए स्वर में चोर बोला- मां मेरे हाथ कांप रहे हैं, जिसके कारण मेरे भीतर की शक्ति समाप्त हो गई है। अतः द्वार बंद करूं तो कैसे?

देवी का रूप जगदंबा का होता है। उसके हृदय में करुण की सरिता बह रही थी। इसलिए वह चोर को बचाना चाह रही थीं। अतः इस बार देवी ने कहा- तुम मेरी प्रतिमा के पीछे बैठ जाओ। फिर कोई भी तुम्हारा बाल बांका नहीं कर सकेगा।

यह सुनकर चोर ने कहा- मां तुम सच कह रही हो, लेकिन मेरे पैर धरती से चिपक गए हैं। अतः एक कदम भी चलना मेरे वश की बात नहीं है। इस भयभीत अवस्था में मैं कुछ भी कर सकने में अक्षम हूं।

इतना सुनते ही देवी रुष्ट हो गईं और कहने लगीं- कापुरुष, तुम जैसे सत्वहीन, कायर और अकर्मण्य पुरुष को मैं सहयोग नहीं दे सकती। तुम्हें अपने कर्मों का फल भुगतना ही होगा।

सीख

चींटी यह कहकर अपनी चाल नहीं रोकती कि मैं हाथी की बराबरी नहीं कर सकती। पुरुषार्थ करती हुई वह पहाड़ पर चढ़ जाती है। स्व पुरुषार्थ से ही उत्थान का मार्ग खुलता है। पुरुषार्थ से कदाचित कार्य सिद्ध हो या न हो, लेकिन पुरुषार्थ कभी निष्फल नहीं होता है। इसलिए कहा है- निरंतर श्रम के आराधक बनो और प्रगतिशील दृष्टिकोण रखो। जीवन का मूल मंत्र है- रुको मत.. चलते रहो। बुझो मत.. जलते रहो।

प्रस्तुतिः सतीशचंद्र अग्रवाल

आनंद वृंदावन, संजय प्लेस, आगरा