
प्राचीन समय की बात है। एक राज्य का राजा शिकार और वन विहार के लिए जंगल गया हुआ था। उस वक्त राजा के साथ उसके मंत्री और सेवकों का काफी बड़ा काफिला था। राजा ने अपने कारवां के साथ घने जंगल में जाकर डेरा डाल दिया। जंगल में राजा और सेवकों को प्यास लगी तो उन्होंने आसपास जलस्त्रोत की तलाश शुरू की। सेवकों ने तलाश शुरू की ही थी कि उनको अपने पड़ाव के नजदीक ही एक कुआं दिखाई दिया। उस कुएं पर एक नेत्रहीन वृद्ध यात्रियों की जलसेवा कर रहा था।
राजा ने अपने सेवकों को जल लाने के लिए उस नेत्रहीन वृद्ध के पास भेजा। सेवकों ने वृद्ध को आदेश दिया और कहा कि ' ओ पनिहारे एक लोटा जल जल्दी से इधर भी देना। ' नेत्रहीन वृद्ध ने कहा कि ' जा भाग जा तेरे जैसे मूर्ख सेवक को कोई भी पानी नहीं देगा। कोई वृक्ष भी तुझको फल नहीं देगा, फल तो क्या तेरे जैसे को वृक्ष छाया भी नहीं देगा। '
सिपाही खिन्न होकर वापस खेमे में आया और अपने नायक को उसने सारी बात बताई। नायक ने जब यह सुना तो वह स्वयं उस कुएं पर गया और नेत्रहीन वृद्ध से कहा कि 'अंधे भाई जल्दी से एक लोटा जल देना, हमको आगे कहीं जाना है। ' सेवक के सरदार की आवाज में भी काफी तल्खी थी इसलिए नेत्रहीन वृद्ध ने उसको भी पानी देने से मना कर दिया और कहा कि ' कपटी मीठा बोलता है। लगता है तू पहले वाले सेवक का सरदार है। मेरे पास तेरे लिए भी पानी नहीं है। '
इधर राजा का प्यास के मारे बुरा हाल हो रहा था। सरदार ने राजा को आकर सारी बात बताई और कहा कि नेत्रहीन वृद्ध पानी देने से इनकार कर रहा है। इस बार राजा स्वयं सेवक और सरदार को लेकर नेत्रहीन वृद्ध के पास कुएं पर गए और उसको नमस्कार करके बोले कि ' बाबाजी प्यास से गला सूखा जा रहा है, यदि थोड़ा पानी दे देंगे तो आपकी बड़ी कृपा होगी, मेरी प्यास बुझ जाएगी। ' नेत्रहीन वृद्ध ने कहा कि ' महाराज आप बैठिए अभी जल पिलाता हू्। ' इतना कहकर उसने राजा को आदरपूर्वक बिठाया और जल पिलाया।
पानी पीने के बाद राजा ने नेत्रहीन वृद्ध से पूछा -' बाबा आपने कैसे जाना कि पहले आने वाले सेवक और सरदार थे और मैं राजा हूं। ' तब नेत्रहीन वृद्ध ने कहा कि ' इंसान को पहचानने के लिए आंखों की जरूरत नहीं होती है, उसकी वाणी के वजन से उसकी परख हो जाती है।
‘सीख
मीठी वाणी से बिगड़े काम भी बन जाते हैं।
प्रस्तुतिः हरिहरपुरी
मठ प्रशासक, श्रीमनकामेश्वर मंदिर, आगरा
Published on:
17 Jun 2018 08:27 am
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