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यूपी के चर्चित पनवारी कांड में 35 साल बाद आया फैसला, 35 साल बाद 36 दोषी करार, 15 बरी

22 जून साल 1990 आगरा का पनवारी कांड आज भी सैकड़ों लोगों के जीवन में घाव की तरह मौजूद है। तीन दशक बीतने के बाद अब जाकर मामले में फैसला आ पाया है। जानिए इस मामले में अब तक की पूरी अपडेट।

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आगरा

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Prateek Pandey

May 28, 2025

पनवारी कांड में 35 साल बाद आया फैसला

पनवारी कांड में 35 साल बाद आया फैसला

उत्तर प्रदेश के आगरा जिले में वर्ष 1990 में हुए पनवारी कांड में 34 वर्षों बाद अदालत ने बुधवार को ऐतिहासिक फैसला सुनाया। अनुसूचित जाति और जाट समुदाय के बीच हुए इस हिंसक टकराव में एससी/एसटी मामलों की विशेष न्यायालय (न्यायाधीश पुष्कर उपाध्याय) ने 36 आरोपियों को दोषी ठहराया है, जबकि 15 लोगों को संदेह का लाभ देते हुए बरी कर दिया गया। अब 30 मई को दोषियों की सजा का निर्धारण किया जाएगा।

इस चर्चित मामले की सुनवाई वर्ष 1990 से लगातार चल रही थी। मीडिया रिपोर्ट्स की मानें तो कुल 78 अभियुक्तों में से 27 की अब तक मौत हो चुकी है जबकि 35 गवाहों के बयान दर्ज किए गए हैं। अदालत ने दोषियों को आईपीसी की धारा 147, 148, 149 और 310 के तहत दोषी पाया है।

क्या है पनवारी कांड?

यह मामला 21 जून 1990 का है, जब आगरा के सिकंदरा थाना क्षेत्र स्थित पनवारी गांव में अनुसूचित जाति से ताल्लुक रखने वाले चोखेलाल जाटव की बेटी मुंद्रा की शादी थी। बारात नगला पदमा से आनी थी लेकिन स्थानीय जाट समुदाय के लोगों ने दलित परिवार की बरात को चढ़ने से रोक दिया। इस पर विवाद बढ़ गया और अगले दिन जब प्रशासनिक अधिकारियों की उपस्थिति में दोबारा बरात चढ़ाने की कोशिश की गई, तो 5 से 6 हजार लोगों की भीड़ ने इसका विरोध किया।

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स्थिति हुई बेकाबू, पुलिस को करना पड़ा बल प्रयोग

विवाद इतना बढ़ गया कि पुलिस को लाठीचार्ज और फायरिंग तक करनी पड़ी। गोली लगने से सोनीराम जाट की मौत हो गई। इसके बाद आगरा सहित आसपास के जिलों में तनाव फैल गया। दलितों और जाटों के बीच हिंसक संघर्ष हुआ। प्रशासन ने स्थिति को नियंत्रण में लाने के लिए कर्फ्यू लगा दिया और सेना की तैनाती तक करनी पड़ी।

सड़कों पर उतारनी पड़ी थी सेना

पनवारी कांड आगरा का पहला ऐसा जातीय संघर्ष था जिसमें सेना को हस्तक्षेप करना पड़ा था। हालात इतने बिगड़ गए थे कि स्थानीय पुलिस और प्रशासनिक तंत्र पस्त हो गया था। यह विवाद केवल पनवारी गांव तक सीमित नहीं रहा, बल्कि अकोला तक इसकी आग पहुंची, क्योंकि अधिकांश आरोपी अकोला क्षेत्र के ही रहने वाले थे।

मामला कागारौल थाने में 24 जून 1990 को दर्ज हुआ था, जब एक राहगीर की सूचना पर तत्कालीन थाना प्रभारी ओमपाल सिंह ने केस दर्ज किया। तब से लेकर अब तक इस केस में सुनवाई चलती रही। लंबी प्रक्रिया के बाद अब जाकर पीड़ितों को न्याय मिला है।