मामले में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 की धारा 14ए (1) एक नॉन ऑब्सटेंट क्लॉज से शुरू होती है और इसे सीआरपीसी में निहित सामान्य प्रावधानों को ओवरराइड करने के लिए डिज़ाइन किया गया है। सरल शब्दों में, अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति अधिनियम की धारा 14ए(1) के तहत, किसी भी निर्णय, संज्ञान आदेश, आदेश जो विशेष न्यायालय का इंटरलोक्यूटरी ऑर्डर नहीं है और अपील की जा सकती है।
इसका मतलब यह है कि इस न्यायालय की संवैधानिक और अंतर्निहित शक्तियों को धारा 14 ए द्वारा “बेदखल” नहीं किया गया है, लेकिन उन मामलों और स्थितियों में उन्हें लागू नहीं किया जा सकता है जहां धारा 14 ए के तहत अपील की जा सकती है और कानून की इस स्थिति को पहले ही सुप्रीम कोर्ट ने “संदर्भ मेंः अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) संशोधन अधिनियम, 2015 की धारा 14ए का प्रावधान” में स्वीकार कर लिया है। अब, हाईकोर्ट के समक्ष एकमात्र प्रश्न यह था कि क्या धारा 14ए की उपधारा (1) में आने वाले शब्द “आदेश” में मध्यवर्ती आदेश भी शामिल होंगे और क्या किसी अपराध का संज्ञान लेना और आरोपी को समन करना मध्यवर्ती आदेश है?
मामले में उत्तर देने के लिए जस्टिस अनिल ओझा की खंडपीठ ने गिरीश कुमार सुनेजा बनाम सीबीआई, (2017) 14 एससीसी 809 के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला दिया, जिसमें यह माना गया था कि अपराध का संज्ञान लेना और आरोपी को तलब करना एक मध्यवर्ती आदेश है। न्यायालय ने माना कि आवेदन धारा 482 सीआरपीसी द्वितीय अपर सत्र न्यायाधीश/विशेष न्यायाधीश, एससी/एसटी अधिनियम, लखीमपुर खीरी द्वारा पारित समन आदेश के विरुद्ध दायर नहीं किया जा सकता है।