जिस दिन मुखबिरी का ख्याल आया, उसी दिन मौत तय थी… मुखबिर का गला काटकर सिर गांव-गांव घुमाया। जमींदार की दोनों आंखें निकाल कर जिन्दा छोड़ दिया। जानें- एक सीधा-सादा लड़का आखिर 200 हत्याओं वाला डकैत कैसे बन गया?
22 जुलाई 2007…बुंदेलखंड के झलमल जंगल में गोलियों की गूंज से पूरा इलाका थर्रा उठा। चारों तरफ STF कमांडो और बीच में घिरा हुआ था वो आदमी, जिसका नाम सुनते ही ठेकेदार कांप जाते थे, गरीब उसे भगवान मानते थे और सरकार जिसकी तलाश में 100 करोड़ रुपए खर्च कर चुकी थी। 200 से ज्यादा हत्याओं का आरोपी, सैकड़ों मुकदमों में वांछित और अपराध की दुनिया का सबसे बड़ा नाम ददुआ। वही ददुआ, जो कभी सत्ता का मददगार था और बाद में सत्ता का सबसे बड़ा दुश्मन बन गया।
इस खौफनाक कहानी की शुरुआत होती है साल 1955 में, जब चित्रकूट के पास दवेदली गांव में शिव कुमार पटेल का जन्म हुआ। बचपन सामान्य था, लेकिन 1972 में उसकी जिंदगी हमेशा के लिए बदल गई। दावा किया जाता है कि पड़ोसी गांव के जमींदार ने शिव कुमार के पिता को नंगा करके पूरे गांव में घुमाया, फिर कुल्हाड़ी मारकर उनकी हत्या कर दी। शिव कुमार को इस बात की जानकारी लगी तो उसका खून खौल गया। उसने कुल्हाड़ी उठाई और रायपुर जाकर उस जमींदार जगन्नाथ और उसके 8 लोगों को काट डाला। एक ही दिन में 9 कत्ल के बाद शिव कुमार बीहड़ों की तरफ भाग गया और तभी जन्म हुआ डकैत ददुआ का।
बीहड़ में उसकी मुलाकात हुई कुख्यात डकैत राजा रंगोली से, जिसने शिव कुमार को नया नाम दिया - ददुआ। राजा रंगोली के राइट हैंड गया कुर्मी ने उसे बंदूक, रायफल और हथियार चलाने की ट्रेनिंग दी। धीरे-धीरे ददुआ गिरोह का मजबूत सिपाही बन गया। लूट, अपहरण और हत्या अब उसकी रोजमर्रा की जिंदगी बन चुकी थी। करीब 10 साल तक पुलिस को सिर्फ वारदातें दिखती रहीं, अपराधी का नाम तक मालूम नहीं था। 1983 में राजा रंगोली पुलिस एनकाउंटर में मारा गया। गया कुर्मी ने सरेंडर कर दिया और ददुआ गैंग का सरगना बन गया।
ददुआ ने अपने आतंक का सबसे बड़ा अड्डा तेंदू पत्ता के कारोबार को बनाया। बीहड़ों के जंगलों में चलने वाले इस करोड़ों के व्यापार पर उसने कब्जा कर लिया। पहले ठेकेदारों का अपहरण होता, फिर फिरौती मांगी जाती। पैसा न मिलने पर हत्या कर दी जाती। हालात ऐसे हो गए कि ठेकेदार खुद डर के मारे पैसे पहुंचाने लगे। बिना ददुआ की इजाजत कोई तेंदू का पत्ता भी नहीं तोड़ सकता था। इस आतंक ने उसे बेहिसाब दौलत दी। इसी के साथ पूरा इलाका उसके खौफ में जीने लगा।
दूसरी तरफ, ददुआ की एक अलग छवि भी बन रही थी। उसने मजदूरों की मजदूरी बढ़वाई, गरीब बेटियों की शादी करवाई, जमीन हड़पने वालों से जमीन वापस दिलवाई और जरूरतमंदों की हर तरह से मदद की। अमीरों को लूटकर गरीबों में बांटने लगा। धीरे-धीरे गांवों में लोग उसे भगवान और मसीहा मानने लगे, लेकिन मुखबिरों और पुलिस के लिए वो मौत का दूसरा नाम था।
ददुआ सबसे कहा करता था, “जिस दिन मेरी मुखबिरी करने का ख्याल भी दिल में आये समझ लेना तुम्हारी मौत हो चुकी है।” 20 जून 1986 को ददुआ की निर्दयता का एक ऐसा ही मामला सामने आया था। ददुआ अपनी 72 लोगों की गैंग के साथ पुलिस के इन्फॉर्मर बन चुके शम्भू सिंह के गांव गया। बीच सड़क पर शम्भू सिंह का गला काटा और फिर उसका कटा हुआ सिर बांस में बांधकर कई गांवों में घुमाया। शम्भू सिंह के अलावा ददुआ ने उसके साथ 9 और लोगों की हत्या कर दी थी। मुखबिरी के शक में एक बार उसने लधौहा गांव के जमींदार की दोनों आंखें निकाल कर उसे जिन्दा छोड़ दिया था। इन बड़ी घटनाओं के बाद बुंदेलखंड के कई गांव सहम गए थे। सरकार प्रेशर में आ गई थी और पुलिस के ऊपर दबाव बढ़ चुका था।
ददुआ की इंटेलिजेंस पुलिस से भी तेज थी। उसके पास खुद का मुखबिर तंत्र था, यहां तक कि पुलिस के अंदर भी उसके लोगों की घुसपैठ थी। वो अपने साथ हमेशा एक हिरण और एक कुत्ता रखता था, जो खतरे की आहट सूंघकर पहले ही उसे अलर्ट कर देते थे। 600 से ज्यादा मुकदमे, 200 से ज्यादा हत्याएं, लेकिन पुलिस के पास उसकी एक भी पक्की तस्वीर नहीं थी।
1994 में पहली बार ऐसा लगा कि ददुआ अब बच नहीं पाएगा। वह अपने ससुराल घटईपुर इलाके में आया था तभी पुलिस ने उसे घेर लिया। जान बचाकर वह हनुमान मंदिर में छिप गया और वहीं उसने मन्नत मांगी कि अगर वो बच गया तो वह एक भव्य मंदिर बनवाएगा। उस दिन उसके कई साथी मारे गए लेकिन ददुआ किसी तरह बच निकला। दो साल बाद, 1996 में उसने फतेहपुर के नरसिंहपुर में एक करोड़ रुपए से ज्यादा खर्च कर शिव हरेश्वर मंदिर बनवाया और उद्घाटन में खुद पहुंचा, वो भी भेष बदलकर। पुलिस चारों तरफ तैनात थी, लेकिन ददुआ उनके सामने से निकल गया।
इसी दौर में ददुआ की एंट्री राजनीति में हो चुकी थी। उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की करीब 20 विधानसभा सीटों पर उसका सीधा प्रभाव था। बांदा, चित्रकूट, फतेहपुर और प्रतापगढ़ जैसे जिलों में विधायक उसी के इशारे पर बनते-बिगड़ते थे। 2002 के विधानसभा चुनाव में उसने मायावती का समर्थन किया। गांव-गांव पोस्टर लगे - “मुहर लगेगी हाथी पर, वरना गोली पड़ेगी छाती पर।” नतीजा ये हुआ कि बसपा की सरकार बन गई और मायावती मुख्यमंत्री बनीं।
लेकिन 2004 में सत्ता बदली और मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री बन गए। ददुआ ने तुरंत पाला बदल लिया, समाजवादी पार्टी का दामन थाम लिया और मायावती उसका सबसे बड़ा दुश्मन बन गईं। इसके बाद बसपा से जुड़े कई नेताओं की हत्याएं शुरू हो गईं और यूपी की राजनीति में ददुआ का नाम डर का दूसरा नाम बन गया।
2007 में जब मायावती दोबारा सत्ता में लौटीं तो उनका पहला आदेश था- “ददुआ चाहिए, जिंदा या मुर्दा।” इसकी जिम्मेदारी दी गई जांबाज अफसर अमिताभ यश को। ददुआ पर 10 लाख रुपए का इनाम घोषित हुआ, मुखबिरों के जरिए उसका स्केच तैयार किया गया और तीन महीने तक लगातार ऑपरेशन चला।
आखिरकार 22 जुलाई 2007 को मानिकपुर थाना क्षेत्र के झलमल जंगल में STF ने ददुआ को घेर लिया। दोनों तरफ से गोलीबारी हुई और वहीं बुंदेलखंड का सबसे खूंखार डकैत मारा गया।
कहानी यहीं खत्म नहीं होती। 2016 में उसी शिव हरेश्वर मंदिर के एक हिस्से में ददुआ की मूर्ति और उसकी पत्नी की मूर्ति भी स्थापित कर दी गई। आज भी वहां पहले भगवान की पूजा होती है और फिर ददुआ की मूर्ति पर फूल चढ़ाए जाते हैं।