भीलवाड़ा

भीलवाड़ा में गधों का मेला: सुंदरता और दौड़ बनी दिवाली बाद की शान, 70 साल से निभाते आ रहे यह परंपरा

Bhilwara Donkey Fair: भीलवाड़ा के मांडल कस्बे में दिवाली के अगले दिन पारंपरिक गधा मेला आयोजित हुआ। इसमें गधों की सुंदरता प्रतियोगिता, पूजा और दौड़ कराई गई। 70 साल पुरानी इस परंपरा में कुम्हार समाज अपने पूर्वजों की मेहनत और गधों के योगदान को याद कर उत्सव मनाता है।

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Oct 23, 2025
Bhilwara Donkey Fair (Patrika File Photo)

Bhilwara Donkey Fair: भीलवाड़ा जिले के मांडल कस्बे में हर साल दिवाली के अगले दिन एक अनोखी परंपरा निभाई जाती है। यहां का “गधा मेला” न सिर्फ देखने लायक होता है, बल्कि ग्रामीण संस्कृति और कृतज्ञता का प्रतीक भी है। तपती धूप वाले इस इलाके में गधों को बोझ ढोने वाले जानवर के बजाय सम्मान देने की परंपरा पीढ़ियों से चली आ रही है।


यह मेला अन्नकूट और गोवर्धन पूजा के दिन आयोजित किया जाता है। इसमें राजस्थान के अलग-अलग हिस्सों से किसान, व्यापारी और परिवार जुटते हैं। इस दिन मांडल कस्बा रंग-बिरंगी सजावट, पारंपरिक गीतों और हंसी-खुशी की गूंज से जीवंत हो उठता है। बच्चे खिलखिलाते हैं, व्यापारी मोलभाव करते हैं और गधों की रेंकने की आवाज पूरे माहौल को उत्सवमय बना देती है।

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मेले का आकर्षण गधा सुंदरता प्रतियोगिता


मेले का सबसे बड़ा आकर्षण होता है गधा सुंदरता प्रतियोगिता। इसके तहत गधों को नहलाकर, साफ-सुथरा कर, रंग-बिरंगे रंगों से सजाया जाता है। उनके गले में फूलों की मालाएं डाली जाती हैं। फिर पंडित पूजा करवाते हैं और गधों को गुड़ खिलाया जाता है। परंपरा के अनुसार, उनके पैरों के पास पटाखे जलाकर उन्हें दौड़ाया जाता है, जिससे “गधा दौड़” शुरू होती है। यह नजारा देखने सैकड़ों लोग जुटते हैं।


70 वर्षों से मनाया जा रहा


मांडल निवासी गोपाल कुम्हार बताते हैं कि वैशाख नंदन पर्व यहां करीब 70 वर्षों से मनाया जा रहा है। पहले हर कुम्हार परिवार के घर में एक गधा जरूर होता था। मिट्टी के बर्तन ढोने और रोजी-रोटी चलाने में वही मददगार था। अब भले ही हालात बदल गए हों और गधों की जरूरत पहले जैसी न रही हो, लेकिन लोग आज भी इस परंपरा को निभाकर अपने अतीत और मेहनतकश जीवन को याद करते हैं।


मेले में लोक कलाकार गधों की निष्ठा और उपयोगिता पर लोकगीत गाते हैं। महिलाएं रंगीन साड़ियों में सजधज कर आती हैं और चाय पीते हुए अपने पुराने किस्से साझा करती हैं। बच्चे सजे हुए ठेलों पर बैठकर झूमते हैं। मेले के अंत में सभी परिवार बाजरे की रोटियों और स्थानीय व्यंजनों का सामूहिक भोजन करते हैं।


यह मेला केवल गधों का नहीं, बल्कि ग्रामीण एकता, परिश्रम और आभार की भावना का उत्सव है। मांडल की यह परंपरा बताती है कि कैसे राजस्थान की मिट्टी में आज भी संस्कृति और संवेदना की जड़ें गहरी हैं।

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Published on:
23 Oct 2025 12:39 pm
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