Navkar Divas Special: नवकार दिवस पर पढ़िए ये स्पेशल रिपोर्ट। ये लेख डॉ.अरिहन्त कुमार जैन असिस्टेंट प्रोफेसर, के. जे. सोमैया धर्म अध्ययन संस्थान, सोमैया विद्याविहार विश्वविद्यालय, मुम्बई ने लिखा है।
Navkar Divas Special: भारतीय संस्कृति और भारतीय चिन्तन प्रारम्भ से ही उदारवादी और समन्वयवादी रहा है। ‘वसुधैव कुटुम्बकम्स’ का संदेश तथा ‘सर्वधर्म समभाव’ की भावना इसी उदारता और समन्वयवादिता का परिचय देती है। सर्वधर्म समभाव का अर्थ है सभी धर्मो के प्रति समानता का भाव । सब धर्मों में समानता के तत्त्व मिल सकते हैं । उन्हें खोजना आवश्यक है । चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर ने सर्वधर्म समभाव के रूप में अनेकान्त और स्याद्वाद जैसे सह अस्तित्त्व के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया, जिसकी आज के युग में सबसे अधिक आवश्यकता है।
‘अनेकांत’ सिद्धान्त एक ही वस्तु में अनेक विरोधी धर्मों अर्थात् गुणों को अंगीकार करता है । अनेकान्त की यह विशेषता है कि इसमें दूसरा पक्ष भी उतना ही महत्त्वपूर्ण होता है, जितना कि पहला पक्ष। वस्तु अनेकांतात्मक है इसीलिए इस अनेकांतात्मक वस्तु का सापेक्षता की दृष्टि से कथन करना स्याद्वाद कहलाता है, अर्थात् सभी धर्मों के प्रति सापेक्षता का दृष्टिकोण।
आचार्य महाप्रज्ञ कहते हैं कि यह यथार्थ को छूने वाली भाषा है । प्रत्येक धर्म ने जो कुछ कहा है, वह अपनी अपेक्षा से कहा है । हम उसकी अपेक्षा को समझने का प्रयत्न करें किन्तु अपनी अपेक्षा को उस पर लादने का प्रयत्न न करें। कोई भी व्यक्ति सम्पूर्ण सत्य का प्रतिपादन नहीं कर सकता। वह कुछ सापेक्ष सत्यों का ही प्रतिपादन करता है। हम निरपेक्ष होकर उस सत्यांश का मूल्यांकन न करें । सभी धर्मों के विचार समान हों, यह आवश्यक नहीं है । प्रथम शताब्दी के आचार्य कुन्दकुन्ददेव रचित नियमसार पाहु? में भी प्राकृत गाथा के माध्यम से कहा है:
णाणा जीवा णाणा कम्मा
णाणाविहं हवे लद्धी ।
तम्हा वयण विवादं, सग.पर
समएहिं वज्जेजा ॥156॥
अर्थात् लोक में नाना प्रकार के जीव हैं, नाना प्रकार के कर्म हैं, नाना प्रकार की लब्धियां हैं, अत: स्व.पर के विषय में वचन-विवाद का त्याग करो। यह भिन्नता चिन्तन की स्वतंत्रता का प्रतिफलन है, इसलिए हम वैचारिक स्वतंत्रता का सम्मान करें और सहिष्णुता को अपनाएं, जिससे ‘सर्वधर्म समभाव’ की भावना का विकास होगा। दार्शनिक युग में खंडन-मंडन का क्रम बहुत चला। जैन, बौद्ध, नैयायिक, वैशेषिक, सांख्य और वेदान्त- ये सभी एक-दूसरे की मीमांसा करते रहे, पर यह सब विद्वद् वर्ग के स्वस्थ संवाद के रूप में बौद्धिक भूमिका पर चलता था, जिससे दर्शन जगत का विकास हुआ। परंतु आधुनिक युग में संवादों के अभाव में विवादों ने जन्म लेना शुरू कर दिया है, जिसका एकमात्र कारण है वैचारिक आग्रह। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने वैचारिक आग्रह को अनैतिक माना और सर्वधर्म समभाव के रूप में वैचारिक अनाग्रह पर जोर दिया। वस्तुत: आग्रह सत्य का होना चाहिए विचारों का नहीं । सत्य का आग्रह तभी तो हो सकता है, जब हम अपने वैचारिक आग्रहों से ऊपर उठे। बापू ने सत्य के आग्रह को तो स्वीकार किया, लेकिन वैचारिक आग्रहों को कभी स्वीकार नहीं किया। उनका सर्वधर्म समभाव का सिद्धांत इसका ज्वलंत उदाहरण है।
स्थूल रूप से सामाजिक स्तर पर पहचान की दृष्टि से हिन्दू, जैन, बौद्ध, सिख, ईसाई, मुस्लिम आदि को धर्म की संज्ञा दी गई है लेकिन धर्म शब्द अत्यन्त व्यापक शब्द है। जो हमारे सार्वभौमिक एवं सार्वकालिक आंतरिक मूल्यों का विशाल महासागर है। धर्म का उद्देश्य मनुष्य को आध्यात्मिक और भौतिक रूप से पूर्ण विकास को उपलब्ध कराना होता है । भारतीय दर्शन में धर्म को विभिन्न प्रकार से परिभाषित किया है। कहा गया है- धरति धारयति वा लोकम् इति धर्म: . अर्थात जो लोक जीवन में धारण करने योग्य है, वह धर्म है । जो मूल्यों को धारण करने योग्य है वही धर्म है । अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, क्षमा, करुणा, सेवा आदि ऐसे मूल्य हैं, जो प्रत्येक धर्म विशेष में सर्वोपरि हैं । इसी प्रकार वैशेषिक दर्शन में धर्म की परिभाषा करते हुए कहा गया है- यतोऽभ्युदय नि:श्रेयससिद्धि: स धर्मं:- अर्थात जो इस लोक में अभ्युदय और परलोक में सिद्धि प्रदान करे, वही धर्म है। जैन दर्शन में कहा गया है ‘वत्थु सहावो धम्मो’ यानि वस्तु का स्वभाव ही उसका धर्म अर्थात् गुणधर्म है। चाहे वह वस्तु जड़ हो या चेतन, चर या अचर, नित्य या अनित्य परंतु उस वस्तु का उसके स्वभाव में रहना ही उसका धर्म है। जैसे पानी का स्वभाव शीतलता। पानी को कितना भी गर्म क्यों न कर लो, वह अपने शीतल स्वभाव में आ ही जाता है ।
‘सर्वधर्म समभाव’ का तात्पर्य भी विभाव से स्वभाव में आना ही है। स्वभाव भी कैसा ? मैत्री, प्रमोद, करुणा, क्षमा, माध्यस्थ भाव आदि से परिपूर्ण। श्री अमितगति-सूरि- विरचित ‘भावना-द्वात्रिंशतिका’ में बहुत ही सुंदर श्लोक कहा गया है, जिसे ‘सर्वधर्म समभाव के सूत्र में रूप में अपनाया जा सकता है।
सत्त्वेषु मैत्रीं गुणिषु प्रमोदं, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपा.परत्वम।
माध्यस्थभावं विपरीतवृत्तौ,सदा ममात्मा विदधातु देव ॥
अर्थात, हे देव ! मेरी आत्मा प्राणिमात्र पर मैत्रीभाव धारण करे, गुणी जनों को देख कर प्रमोद का अनुभव करे, दुखी जनों पर करुणाभाव धारण करे और विपरीत व्यवहार करने वालों पर मध्यस्थभाव धारण करें । इस प्रकार की सौहार्दपूर्ण भावना विश्वशांति में अहम भूमिका निभा सकती है ।
प्राचीन ग्रन्थों में धर्म, सौहार्द, समन्वय के सूत्र- हमारे समस्त प्राचीन धार्मिक ग्रन्थों में ‘सर्वधर्म समभाव’ व ‘विश्व बन्धुत्व’ की उत्कृष्ट भावना, जीव-जगत के कल्याण की कामना तथा सहिष्णुता, सत्य, अहिंसा आदि का प्राबल्य है। जैन दर्शन में धर्म के दस लक्षणों की व्याख्या करते हुए ये कहा गया है कि उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, संयम, शौच, तप, त्याग, आकिंचन्य एवं ब्रह्मचर्य का पालन करके, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र रूपी रत्नत्रय को प्राप्त कर, इस संसार से मुक्ति मिल सकती है । इसी प्रकार मनुस्मृति में भी धर्म के दस लक्षणों को इंगित किया गया है .
धृति: क्षमा दमो अस्तेयं शौचं इंद्रियनिग्रह: ।
धी: विद्या सत्यम् अक्रौधो दशकम् धर्मलक्षणम् ॥
अर्थात् धैर्य, क्षमा, इच्छाओं पर नियंत्रण, चोरी नहीं करना, साफ सफाई से रहना, इंद्रियों को अपने वशीभूत रखना, विवेकशील होना, विद्या ग्रहण करना, सत्य बोलना,क्रोध नहीं करना- यह धर्म के दस लक्षण हैं। आचार्य उमास्वामी कृत ‘तत्त्वार्थसूत्र’ ग्रंथ में उद्धृत ‘परस्परोपग्रहो जीवानाम्’ 5/21-. शांतिपूर्ण समृद्ध समाज व्यवस्था का मूलमंत्र है, जिसका आशय यह बताना है कि जीव में परस्पर सहयोग और उपकार करने की वृत्ति होती है । भगवद्गीता में भी परस्पर सहयोग के संबंध में कहा गया है- ‘परस्परं भावयन्त: श्रेय: परमवाप्स्यथ’ 3/11 । परस्पर उपकार की यह वृत्ति छोटे.बड़े सभी जीवों में मिलती है। इस प्रकार परस्पर सौहार्द, समन्वय और सहयोग की त्रिवेणी को अपनाकर हम ‘सर्वधर्म समभाव’ की भावना को यथार्थ रूप में अंगीकार कर विश्वशांति का आदर्श संदेश स्थापित कर सकते हैं, जिसका लाभ मात्र व्यक्तिगत ही नहीं, बल्कि परिवार, समाज, देश और समूचे विश्व को होगा।
नोट- ये लेख डॉ.अरिहन्त कुमार जैन असिस्टेंट प्रोफेसर, के. जे. सोमैया धर्म अध्ययन संस्थान, सोमैया विद्याविहार विश्वविद्यालय, मुम्बई ने लिखा है।