बरेली हिंसा मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा कि 'सर तन से जुदा' नारा कानून और पैगंबर मोहम्मद के आदर्शों के खिलाफ है। रिहान की जमानत याचिका खारिज करते हुए कोर्ट ने कहा कि ऐसा नारा भीड़ को हथियारबंद विद्रोह के लिए उकसाता है और सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाता है।
Bareilly Violence: इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक अहम फैसले में कहा है कि 'गुस्ताख-ए-नबी की एक सजा, सर तन से जुदा, सर तन से जुदा' का नारा कानून के अधिकार के साथ-साथ भारत की संप्रभुता और अखंडता के लिए भी चुनौती है, क्योंकि यह लोगों को हथियारबंद विद्रोह के लिए उकसाता है।
सितंबर में बरेली में हुई हिंसा के सिलसिले में एक आरोपी रिहान की ओर से दायर जमानत याचिका पर सुनवाई करते जस्टिस अरुण कुमार सिंह देशवाल ने कहा कि ऐसे नारे का इस्तेमाल न सिर्फ भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस) की धारा 152 के तहत दंडनीय होगा, बल्कि यह इस्लाम के बुनियादी सिद्धांतों के भी खिलाफ है।
कोर्ट ने कहा कि भीड़ द्वारा लगाया गया कोई भी नारा जो कानून द्वारा दी गई सही सजा के खिलाफ मौत की सजा देता है, वह न सिर्फ संवैधानिक मकसद के खिलाफ है, बल्कि भारतीय कानूनी प्रणाली के कानूनी अधिकार के लिए भी एक चुनौती है। कोर्ट ने कहा कि किसी भी व्यक्ति या भीड़ द्वारा ऐसे नारों (धार्मिक या घोषणा) को उठाना या लगाना कोई अपराध नहीं है, जब तक कि उनका इस्तेमाल दूसरे धर्मों के लोगों को डराने के लिए गलत इरादे से न किया जाए।
कोर्ट ने कहा कि ऐसे कई उदाहरण हैं, जो दिखाते हैं कि पैगंबर मोहम्मद ने कुछ लोगों द्वारा अपमान किए जाने के बावजूद उदारता दिखाई थी। पैगंबर ने कभी भी ऐसे व्यक्ति का सिर कलम करने की इच्छा नहीं जताई या ऐसा करने को नहीं कहा। कोर्ट ने राय दी कि अगर इस्लाम का कोई भी अनुयायी ऐसे नारे लगाता है तो यह पैगंबर मोहम्मद के आदर्शों का अपमान है।
रिहान ने याचिका में कहा कि उसे झूठा फंसाया गया है। कोर्ट ने कहा कि वह गैरकानूनी भीड़ का हिस्सा था, जिसने न केवल आपत्तिजनक नारे लगाए, बल्कि पुलिसकर्मियों को चोट भी पहुंचाई और सार्वजनकि संपत्ति को नुकसान पहुंचाया। इसके साथ ही उसकी जमानत याचिका खारिज कर दी।