डॉ. दीपक श्रीवास्तव, (लेखक दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर हैं)
मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंज़िल मगर लोग साथ आते गए और कारवां बनता गया।मजरूह सुल्तानपुरी का यह मशहूर शेर उनकी शायरी का महज़ नमूना नहीं है, बल्कि उनकी बुनियादी सोच का परिचय और ज़िंदगी की कहानी है। हिंदुस्तान में शायरी की लम्बी तारीख, सिलसिला और रिवायत कायम है। भारतीय सिनेमा उर्दू अदब के इस पक्ष को प्रतिबिंबित करता है। फिल्मों और शायरी के बावजूद बहुत कम शायर ऐसे हुए हैं, जिन्होंने एक तरफ क्लासिकल ग़ज़ल और नज़्म के क्षेत्र में तो दूसरी तरफ फिल्मी गीत लेखन में एक-सी महारत दर्शाई हो। मजरूह सुल्तानपुरी हिन्दुस्तानी शायरी की एक ऐसी ही शख़्सियत का नाम है।
1 अक्टूबर 1919 को उत्तरप्रदेश के सुल्तानपुर में जन्मे असरार उल हसन खान ने अपने पिता की मर्जी के खिलाफ शायरी में रुचि ली। “मजरूह” तख़ल्लुस अपनाया और मुशायरों और फिल्मों के ज़रिए मजरूह सुल्तानपुरी के नाम से प्रसिद्ध हुए। उनके पिता तहरीक-ए-ख़िलाफ़त से प्रभावित थे, मौजूद अंग्रेज़ी शिक्षा के पक्षधर न थे। अपने इकलौते पुत्र को मदरसे में तालीम के लिए भर्ती करवाया। मदरसे में मजरूह ने उर्दू के अलावा फ़ारसी और अरबी ज़ुबानों की तालीम भी हासिल की। शायद तदबीर आने वाली शोहरत की नींव रख रही थी। प्रोफेसर रशीद अहमद सिद्दीकी और जिगर मुरादाबादी ने मजरूह के शायरी के शौक़ को हवा दी। मुंबई के एक मुशायरे में मजरूह की ग़ज़ल ने फिल्म डायरेक्टर ए. आर. कारदार का ध्यान खींचा। कारदार उस समय फिल्म शाहजहां बना रहे थे। फिल्म में संगीत निर्देशक नौशाद थे और हीरो थे के. एल. सहगल। नौशाद साहब ने मजरूह को गीत लिखने के लिए एक धुन दी और मजरूह ने खूबसूरत गीत लिखकर नौशाद साहब का दिल जीत लिया। अच्छी तनख़्वाह पर मजरूह को शाहजहां फिल्म के गीत लिखने का काम मिल गया। मजरूह ने 1947 में फिल्म नाटक और फिल्म डोली के गीत लिखे। 1948 की फिल्म अंजुमन में भी मजरूह ने बतौर गीतकार काम किया। 1949 की महबूब खान की फिल्म अंदाज़ से मजरूह ने वो मुक़ाम हासिल कर लिया कि फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा।
सहगल की आवाज़ में मजरूह का गीत “जब दिल ही टूट गया हम जी के क्या करेंगे” हर मायूस प्रेमी के दिल का हाल बयां करता रहा और खुद सहगल ने यह ख़्वाहिश की कि यह गीत उनके जनाज़े पर बजाया जाए और उनकी इस ख़्वाहिश का सम्मान भी दिया गया। मजरूह की शायरी की ख़ासियत यह रही कि उन्होंने इश्क़, बर्बादी, जुदाई, दर्द जैसी भावनाओं को सादा और दिल में सहज उतर जाने वाले शब्दों में पिरोया। कनाडा के एक मुशायरे में पाक़िस्तानी शायर फ़ैज़ ने भारत के हालात पर तल्ख़ टिप्पणी कर दी तो जवाब में मजरूह ने मज़ाक-मज़ाक में ही फ़ैज़ को श्रोताओं की नज़रों में शर्मसार कर दिया। सख़्त हालात और कटु अनुभव मजरूह के देश प्रेम को डिगा न पाए थे। हुआ यूं कि शायरी में अपनी सोच और बेबाक़ अभिव्यक्ति के चलते मजरूह को 1949 में जेल की हवा तक खानी पड़ी थी। कोई हमदम न रहा, कोई सहारा न रहा, एक दिन बिक जाएगा माटी के मोल, रात खिली एक ख़्वाब में आई… जैसे बेशुमार मशहूर गीत और ग़ज़ल मजरूह ने सिनेमा की दुनिया को दिए हैं।
मजरूह के दिल में तड़प थी और मिज़ाज में आज़ादी। उनकी शायरी में कहीं प्रेमाकर्षण, कहीं वैराग्य, तो कहीं बग़ावत है। भारतीय सिनेमा को क़रीब चार हज़ार यादगार गीत और ग़ज़लें देकर, पूरी ज़िंदगी कभी न झुकने, कभी न थकने और कभी न बिखरने वाले मजरूह की कलम 24 मई 2000 को सदा के लिए थम गई। सन 1965 में मजरूह को अपने गीत “चाहूंगा मैं तुझे सांझ सवेरे” के लिए बेस्ट गीतकार के फिल्मफेयर अवॉर्ड से नवाज़ा गया। भारतीय सिनेमा के इतिहास में यह पहला मौक़ा था जब किसी गीतकार को गीत लिखने के लिए इस अवॉर्ड से नवाज़ा गया था। मजरूह ने रूस, इंग्लैंड, अमेरिका, कनाडा और खाड़ी मुल्कों के सम्मेलनों और सभाओं में शिरकत की। भारत सरकार ने 1993 में मजरूह को दादासाहेब फाल्के अवॉर्ड देकर भारतीय सिनेमा को गौरवान्वित किया।