एनटीए की विफलता से देश में जो तूफान उठा है, उसे खतरे की घंटी के रूप में देखा जाना चाहिए। यह हमें उन कमजोरियों का स्मरण कराता है जिनके कारण लंबे समय से भारत की शिक्षा प्रणाली को नुकसान पहुंच रहा है।
ज्योतिका कालरा
सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट और एनएचआरसी की पूर्व सदस्य
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पिछले कुछ दिनों से शिक्षा मंत्रालय का स्वायत्तशासी निकाय नेशनल टेस्टिंग एजेंसी (एनटीए) विवादों में है। विवादों की शृंखला ने पूरे देश में छात्रों को गंभीर रूप से प्रभावित किया है। इस निकाय पर उच्च शिक्षा के लिए विभिन्न प्रवेश परीक्षाएं कराने की जिम्मेदारी है। परीक्षा केंद्रों में कई अनियमितताओं और मानकों का अनुपालन न होने को लेकर एजेंसी पर कई आरोप हैं। नीट परिणाम, जो 4 जून को घोषित हुआ, से पूरे देश में अभ्यर्थियों में आक्रोश फैल गया। कई मुद्दे सामने आए, जैसे 1,500 से अधिक छात्रों को ग्रेस माक्र्स दिया जाना और सबसे बढक़र प्रश्नपत्र का लीक होना। एनटीए, एनईईटी-यूजी और यूजीसी-नेट परीक्षा को कुशलता के साथ और त्रुटि रहित तरीके से आयोजित करने में पूरी तरह विफल रहा है। इस घटना ने न केवल छात्रों के आत्मविश्वास को डिगाया है, बल्कि परीक्षा प्रक्रिया की शुचिता पर भी संदेह की छाप छोड़ दी है। हालांकि, एनटीए मुखिया का निलंबन और जांच आयोग का गठन वास्तविक मुद्दे को सुलझाने की विशुद्ध कोशिशों की तुलना में ज्यादा मजबूरी ही प्रतीत हुए। ऐसे वक्त में, जब हितधारक पारदर्शिता और जवाबदेही की सख्त मांग कर रहे हैं, यह देखा जाना है कि क्या ये कार्रवाई वास्तव में विश्वास बहाली के लिए पर्याप्त हैं अथवा लोगों के आक्रोश से बचने के लिए महज दिखावटी समाधान हैं।
मुद्दा केवल नीट और नेट तक ही सीमित नहीं है बल्कि यह हमारी शिक्षा व्यवस्था की समग्रता पर भी सवाल खड़े करता है। सबसे पहले, इस तरह की प्रवेश परीक्षा का अपरिहार्य होना अपने आप में ही बेतुकापन लिए हुए है, क्योंकि किसी यूनिवर्सिटी में आवेदन करने से पहले ही छात्र अर्हता परीक्षा दे चुके होते हैं। एक भारतीय छात्र स्कूली जीवन के रूप में औसतन 14 साल व्यतीत करता है। यह एक बड़ा सवाल है कि यदि यह अवधि उनकी बुद्धिमत्ता या क्षमताओं के स्तर को मापने के लिए पर्याप्त नहीं हैं, तो हम कुछ घंटों में उनके स्तर को कैसे माप सकते हैं? इसके अलावा यह विचार भी उचित दृष्टिकोण वाला नहीं लगता कि जो भी प्रवेश परीक्षा में बेहतर प्रदर्शन करेगा, वह सबसे योग्य होगा। वास्तव में, समूची स्कूली शिक्षा के महत्त्व को कम ही कर रही हैं कुछ घंटों की ये प्रवेश परीक्षाएं।
तर्क दिया जा सकता है कि ऐसी व्यवस्था को लागू करने के मूल में पूरे भारत के छात्रों की काबिलियत को एक सामान्य पैमाने यानी सीयूईटी स्कोर पर मापना है, चाहे वे किसी भी राज्य के हों। कथित तौर पर एक वजह यह भी दी जाती है कि कुछ राज्यों के बोर्ड अपने छात्रों को अंक देने में उदार थे, अन्य राज्यों की तुलना में। लेकिन क्या यह ज्यादा विवेकपूर्ण नहीं होता कि नई प्रणाली बनाने के बजाय राज्यों ने अपने मौजूदा शैक्षणिक ढांचे को मजबूत किया होता और कुछ मानदंड पेश किए होते। समस्या का हल कैसे निकाला जाए इसकी शुरुआत इस गलत दृष्टिकोण से भी कर सकते हैं कि राज्यों के बोर्ड या स्कूल अपने छात्रों की क्षमताओं का आकलन करने में सक्षम नहीं हैं। बात यहीं तक सीमित नहीं है। शिक्षा प्रणाली में एक और परत जोडऩे के गंभीर वित्तीय दुष्प्रभाव भी हैं द्ग राज्यों के लिए भी और छात्रों के लिए भी।
एनटीए की विफलता से देश में जो तूफान उठा है, उसे खतरे की घंटी के रूप में देखा जाना चाहिए। यह हमें उन कमजोरियों का स्मरण कराता है जिनके कारण लंबे समय से भारत की शिक्षा प्रणाली को नुकसान पहुंच रहा है। कड़े सुरक्षा उपाय और उन्नत तकनीक अपनाकर हम अधिक पारदर्शिता और समग्र दृष्टिकोण के साथ उज्जवल भविष्य का मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं जहां हर छात्र को योग्यता और उनकी कड़ी मेहनत से सफल होने का उचित मौका मिलेगा। हम सभी के लिए यह आत्मनिरीक्षण का समय है ताकि हमारे युवा भविष्य में असुरक्षित न रहें।