
हाल में कानपुर में एक झकझोरने वाली घटना सामने आई जिसमें दूसरी कक्षा में पढऩे वाला मासूम बच्चा स्कूल में लगातार मानसिक प्रताडऩा का शिकार बना। पेन चोरी के आरोप से डर व बेबसी के साए में जीते हुए यह बालक इतना टूट गया कि घर की दीवारों पर बार-बार 'हेल्प…हेल्प' लिखने लगा। बालमन काफी संवेदनशील होता है। इस घटनाक्रम में जो तथ्य सामने आए हैं, उससे साफ लगता है कि स्कूल प्रबंधन ने न तो अभिभावकों की बात पर ध्यान दिया और न ही बच्चे के पक्ष को समझने की कोशिश की। बच्चों को प्रताडि़त करने के मामले जब भी सामने आते हैं उनमें जिम्मेदारों की अनदेखी पर भी सवाल उठते रहे हैं। जयपुर में एक निजी स्कूल में आत्महत्या करने वाली बालिका के मामले में भी ऐसा ही था। न तो उस बालिका की बात किसी ने सुनी और न ही अभिभावकों की शिकायतों पर ध्यान दिया गया।
खेलने-कूदने की उम्र में बच्चे अवसाद की गिरफ्त में आ रहे हों तो शिक्षण संस्थाओं में प्रबंधन, शिक्षक समुदाय व अभिभावक सबको सावधान रहने की जरूरत है। यह सावधानी इसलिए भी जरूरी है क्योंकि छोटी-छोटी बातों पर आरोप, सार्वजनिक रूप से अपमान या लगातार डांट-फटकार से बच्चे कुंठाग्रस्त हो जाते हैं। जो शिक्षक बच्चों के आत्मसम्मान को कुचलने में भागीदार बन रहे हैं वे कैसी शिक्षा दे रहे होंगे, यह भी बड़ा सवाल है। प्राथमिक कक्षाओं में पढऩे वाले बच्चों को अनुशासन के नाम पर भयभीत करना, अपमानित करना और दबाव का शिकार बनाना न केवल अमानवीय ही कहा जाएगा बल्कि उनके व्यक्तित्व विकास को बाधित करने वाला प्रयास भी होगा। शिक्षा का उद्देश्य बच्चों को सशक्त बनाना है, न कि उन्हें डर और अपराधबोध में जीने को मजबूर करना। यह भी सोचने की जरूरत है कि स्कूलों में छोटी-छोटी बातों को बड़े अपराध की तरह क्यों देखा जाने लगा है। यदि ऐसे मामले सामने आते भी हों तो समस्या का समाधान बच्चों से संवाद, समझाइश और नैतिक शिक्षा से किया जाना चाहिए। शिक्षक व छात्र का रिश्ता भरोसे का होता है। यदि शिक्षक ही दंड देने की भूमिका में आने लगते हैं तो भरोसे का यह रिश्ता भी खत्म होते देर नहीं लगती।
कानून और बाल अधिकारों के तहत स्कूलों में किसी भी तरह की शारीरिक या मानसिक प्रताडऩा स्पष्ट रूप से प्रतिबंधित है। इसके बावजूद ऐसी घटनाओं का सामने आना बताता है कि नियम-कायदे कागजों तक सीमित रह गए हैं। यह सवाल किसी एक बच्चे या एक स्कूल का नहीं है। यह हमारे पूरे सामाजिक नजरिये का प्रतिबिंब है। अगर हम बच्चों की पीड़ा को समय रहते नहीं समझेंगे, तो 'हेल्प' जैसी चीखें दीवारों पर नहीं, बल्कि उनके मन पर स्थायी घाव बनकर रह जाएंगी। स्कूलों को सजा का केंद्र बनाने के बजाय संवेदनशीलता, संवाद और विश्वास का स्थान बनाना ज्यादा जरूरी है। तभी स्कूलों में बच्चे बिना किसी तनाव के अपने भविष्य की नींव रख सकेंगे।
Published on:
27 Dec 2025 04:31 pm
बड़ी खबरें
View Allओपिनियन
ट्रेंडिंग
