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दिल, दर्शन व दर्द को लफ्जों में ढालने वाले शायर थे गालिब

अत्यन्त स्वाभिमानी गालिब का लगभग पूरा जीवन ही अभावों और कष्टों में व्यतीत हुआ। शायद यही कारण था कि वह जमाने की कटु और असह्य स्थितियों पर अपनी शायरी के जरिए निरन्तर चोट करते रहे।

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जयपुर

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Opinion Desk

Dec 27, 2025

डॉ. दीपक श्रीवास्तव (लेखक दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर हैं)

उर्दू शायरी में गालिब का अपना अलग मुकाम और पहचान है। गालिब की विलक्षण काव्याभिव्यक्ति एक ओर उनके हृदय की सशक्त संवेदनशीलता और दूसरी तरफ उसके रहस्यवादी अध्यात्म चिंतन और बुनियादी दार्शनिकता से अनुप्राणित है। गालिब का कलाम हर इंसानी जज्बे और अहसास को लफ्जों में बख़ूबी पिरोता है और कुछ इस अंदाज में पेश करता है कि वह सहज ही दिल की गहराई से निकली हुई आवाज मालूम पड़ता है। यही वजह है कि उनके अनेक शेर, मुहावरे के तौर पर प्रसिद्ध हैं।

गालिब का जन्म 27 दिसंबर 1797 को आगरा में हुआ तथा अधिकांश जीवन दिल्ली में व्यतीत हुआ। प्रभावशाली व्यक्तियों से निजी संबंध रहे और बादशाह बहादुरशाह जफर ने गालिब को 'नजमुद्दौला दबीरुल्मुल्क' और 'निजामे जंग' की उपाधियों से नवाजा। अत्यन्त स्वाभिमानी गालिब का लगभग पूरा जीवन ही अभावों और कष्टों में व्यतीत हुआ। शायद यही कारण था कि वह एक ओर तो जमाने की कटु और असह्य स्थितियों पर अपनी शायरी के जरिए निरन्तर चोट करते रहे और दूसरी ओर उसका भावनात्मक पक्ष इतना प्रबल रहा कि वह हर सुख-दुख को इतनी गहराई से महसूस और बयान कर सका कि वह न केवल अपने युग की अपितु हर तड़पते मन की शाश्वत आवाज बन गया।

स्वाभिमान कुछ ऐसा कि-'बंदगी में भी, वह आजाद-ओ-खुदबीं हैं कि हम उल्टे फिर आए, दर-ए-काबा अगर वा न हुआ' और निराशा की व्यापकता का नमूना यह कि- 'घर हमारा जो न रोते भी तो वीरां होता बहर (समुद्र) गर बहर न होता तो बयाबां (सुनसान-उजाड़) होता' तो दूसरी तरफ खस्ताहाली का मजाक उडाने की निराली कुव्वत यह कि, 'उग रहा है दर-ओ-दीवार पे सब्जा गालिब हम बयाबां में हैं और घर में बहार आई है' गालिब का उर्दू काव्य इतना महत्वपूर्ण और प्रासंगिक है कि बिना उससे आशना हुए कोई भी उर्दू अदब में स्थान का दावा नहीं कर सकता।

गालिब की उर्दू शायरी पर जितनी अधिक टीकाएं, भाष्य, समालोचनाएं और शोध हुए हैं उतने किसी अन्य शायर पर नहीं हुए। गालिब अपनी खूबियों और खामियों से एक समान वाकिफ है और दोनों का ही इजहार करने में गालिब को कोई संकोच भी नहीं है… 'यह मसाइल-ए-तसव्वुफ (तत्त्व चिंतन के विषय) यह तेरा बयान गालिब तुझे हम वली (धर्मज्ञ) समझते जो न बादा खूवार (शराबी) होता' गालिब रहस्यानुभूति के आनन्द को समझते थे। तत्व-दृष्टा के लिए न केवल दुनिया एक भ्रम है अपितु स्वर्ग-नरक भी उसके लिए कल्पनाएं मात्र हैं। मनुष्य इन कल्पनाओं का उपयोग खुद को बहलाने के लिए करता है-'हमको मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन दिल खुश रखने को गालिब यह खयाल अच्छा है।'