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मंशा का प्रत्युत्तर

अठारहवीं लोकसभा चुनावों के परिणाम आ गए। कई बड़े तथ्य स्पष्ट हुए। जनता ने जिस भाजपा को सत्ता सौंपी थी, वह बदलती हुई जान पड़ी।

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Jun 06, 2024

गुलाब कोठारी

अठारहवीं लोकसभा चुनावों के परिणाम आ गए। कई बड़े तथ्य स्पष्ट हुए। जनता ने जिस भाजपा को सत्ता सौंपी थी, वह बदलती हुई जान पड़ी। जनता ने भाजपा के शब्दों को नहीं सुना, कार्यों को भी नजरअंदाज कर दिया। भाजपा की मंशा पर वोट की चोट मारी। यह भी स्पष्ट है कि आज भी देश में उसे भाजपा का विकल्प नजर नहीं आया। देखना यह है कि अगले पांच साल में भाजपा पुन: अपने स्वरूप में आ सकती है अथवा विपक्ष मजबूत होता है। भाजपा ने भी सत्ता के केन्द्रीकरण की मंशा दिखाई। दोनों ही बड़े कदम भाजपा को भारी पड़ गए। भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा के परिणामों के बाद प्रथम सम्बोधन में इन दोनों बातों का उल्लेख नहीं था। उनको यह अहसास नहीं था कि जनता ने भाजपा को हार पहनाकर भी हारने से बचाया ही है। भाजपा को जीत का गर्व नहीं हो जाना चाहिए। आगे कोई अवसर नहीं मिलेगा।

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सत्ता के केन्द्रीकरण का रास्ता स्व. इन्दिरा गांधी ने अपनाया था। आज तक कांग्रेस उसी की कीमत चुका रही है। कोई नेता पैदा ही नहीं हुआ। इतिहास बेचकर पेट भर रही है। भाजपा पिछले कुछ वर्षों से उसी पटरी पर चढ़ती दिखाई पड़ रही है। उसका आधार भी छोटा होने लगा है। विकास के जितने दावे भाजपा ने किए, नई पीढ़ी ने स्वीकार नहीं किए। भाजपा को बाहरी फैलाव के स्थान पर आत्मिक धरातल पर पुन: चिन्तन करना चाहिए। देश को दोनों पक्षों की आवश्यकता है। समय सदा एक जैसा नहीं रहता। मंशा ही समय की काल-अवधि तय करती है।

भाजपा ने राजस्थान में वसुन्धरा राजे को किनारे किया क्योंकि वह शक्तिशाली नेत्री के रूप में उभर रही थी। यह अलग बात है कि इन चुनावों में उन्होंने अपनी लाइन छोटी कर ली। भाजपा ने मध्यप्रदेश में लोकप्रिय नेता शिवराज सिंह को किनारे लगाने का प्रयास किया। उनके बिना विधानसभा चुनाव जीत पाना सहज नहीं था। इन चुनावों में तो प्रचार कर उन्होंने लम्बी लाइन खींच दी। यहां तक कि वाराणसी की रेखा छोटी पड़ गई। इन परिणामों में गहरे संदेश और मतदाता की परिपक्वता छिपी है।

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इसी होशियारी के चलते भाजपा ने इस बार उत्तरप्रदेश के परिणाम प्रत्यक्ष किए हैं। पूरे चुनाव में यह चर्चा थी कि चुनाव के बाद योगी आदित्यनाथ को भी किनारे कर दिया जाएगा। प्रचार में से उनके नाम की चर्चा, उनके चित्र नदारद थे। बल्कि ऐसा लग रहा था कि भाजपा ने भी अपने दल का प्रचार न करके ‘मोदी’ नाम पर वोट मांगे थे। स्वयं मोदी तो यह कह ही रहे थे कि ‘मोदी की गारंटी’ को वोट देना है। अन्य प्रान्तीय दलों की तर्ज पर भाजपा भी संस्थावाचक के स्थान पर व्यक्तिवाचक हो गई।

यह अधिनायकवाद की अभिव्यक्ति है और इसी के उत्तर में बड़ा विपक्ष जनता ने खड़ा कर दिया है।

चुनावों के मध्य में ही भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा ने एक आत्मघाती बयान दे डाला जो सत्ता के ‘मद’ की ‘अति’ ही साबित हो गया। ‘भाजपा आज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सहायता के बिना भी अपना कार्य करने में समर्थ है।’ मानो पढ़-लिखकर, अच्छी कमाई करने वाले बेटे ने पिता को घर से निकाल दिया। मैंने महाराष्ट्र दौरे की रिपोर्ट में इंगित किया था कि महाराष्ट्र में शिवसेना और संघ की स्वीकृति के बिना भाजपा प्रवेश नहीं कर पाएगी। भाजपा अध्यक्ष की घोषणा ने ‘आ बैल मुझे मार’ वाली कहावत सच कर दी।

पिछले वर्षों में देश बिना सशक्त विपक्ष के लोकतंत्र के उत्सव-दर-उत्सव मना रहा था। सत्ता पक्ष का संचालन निर्बाध चल रहा था। कांग्रेस ही राष्ट्रीय दल के रूप में इतिहास को जी रही थी। वर्तमान में उत्तराधिकारी तैयार किए जाने का क्रम चल रहा था। दिशाहीन सत्ता के सपने हिलोरे ले रहे थे। देश की स्थिति-आवश्यकता-दिशा जैसे मुद्दे अर्थहीन से बने हुए थे। देश की संस्कृति कांग्रेस से पल्ला झाड़ चुकी थी। एक के बाद एक चुनाव में कांग्रेस के गढ़ की कुछ दीवारें ढहती जा रहीं थीं। उसी गति से लोकतंत्र का स्वरूप भी चरमराता जा रहा था। बिखराव भी चरम पर पहुंच गया था। लगने लगा था वेंटिलेटर पर आ चुकी है।

समय सदा एक-सा नहीं रहता। इस बार का जनादेश परिपक्व है। कांग्रेस की योजना भी परिपक्व निकली। इस देश ने एक पार्टी राज भी देखा, तानाशाही भी देखी, गठबन्धन की सरकारें भी देखी हैं। निजी स्वार्थों ने ही अन्त में सरकारों को विदा किया। दल एवं परिवार का भेद जहां समाप्त हो जाता है वहां लोकतंत्र नहीं रह सकता। इस बार सभी विपक्षी-क्षेत्रीय दल बड़े संकल्प एवं इच्छा शक्ति के साथ, अपने-अपने स्वार्थों से ऊपर उठकर एक हो गए। लक्ष्य था-भाजपा को सत्ताच्युत करना है। देश में पहले ऐसा कभी नहीं हुआ।

कांग्रेस के नेतृत्व में प्रान्तीय दल बाहर निकलकर राष्ट्रहित से जुड़ने को एक हुए। न भाजपा इस तथ्य की गहराई में जा सकी, न ही मीडिया समझ पाया। ‘गठबन्धन’ शब्द रूढ़ि की चर्चा में आकर ओझल हो गया। भाजपा की तरह कांग्रेस ने इस बार सम्पूर्ण देश में प्रत्याशी खड़े ही नहीं किए। हर दल में सीटों का बंटवारा हो गया। कहीं दो दलों के प्रत्याशी आमने-सामने नहीं हुए। उदाहरण के लिए यूपी में सपा और कांग्रेस में यादव और मुस्लिम वोट नहीं बंटे। दोनों ही अपने-अपने क्षेत्र में सफल रहे। कांग्रेस इसी कारण 99 का अंक (पिछले अंक से लगभग दो गुना) छू पाई। आज फिर से मजबूत विपक्ष के सपने देखने लायक हो गई। इसी योजना का लाभ सपा और अन्य सहयोगी दलों को मिल पाया। आगे भी यही भाव बना रहा तो एक सशक्त राष्ट्रीय दल खड़ा हो सकेगा। झंडा चूंकि कांग्रेस के हाथ में है, उसे ही पहले अपने स्वार्थ त्यागने पड़ेंगे।

भाजपा को उत्तरप्रदेश और महाराष्ट्र, दोनों ही लाड़ले उल्टे पड़ गए। बड़ा होने के कारण भाजपा को उदारता-सम्मान (छोटाें का) तथा सत्ता-मद को नियंत्रण में रखने का संकल्प दोहराना चाहिए। कांग्रेस के प्रचार में एक कसक थी -दर्द था, किन्तु वह कांग्रेस के लिए उतना नहीं था। दर्द तो जनता के दिल में था- विपक्ष के अभाव का, सत्ता के घमण्ड का, भाजपा नेताओं की स्वच्छंदता का और ‘वाशिंग मशीन’ का। विकल्प तो आज की कांग्रेस भी नहीं है, ‘इण्डिया’ भी नहीं है, किन्तु हताश जनता ने सशक्त विपक्ष को खड़ा करने का संकल्प तो दिखाया है। सक्षम हो लोकतंत्र! कथनी और करनी एक हो-सत्ता की। समय के साथ सत्ता के सपने भी परवान चढ़े। विपक्ष आलोचक न रहे, विकास में भी अपनी भूमिका निभाए। सत्ता और विपक्ष दोनों जीते-दोनों को जनता के परिपक्व निर्णय की बधाई एवं शुभकामना !!

Updated on:
06 Jun 2024 12:26 pm
Published on:
06 Jun 2024 12:25 pm
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