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परिवारों में फंसे क्षत्रप

से-जैसे राष्ट्रीय दल कमजोर पड़े, उनमें परिवर्तन होता गया। उसी काल में कुछ नेताओं ने अपने-अपने दल बना लिए और क्षत्रप बन बैठे। राष्ट्रीय राजनीति से इनका सम्बन्ध नहीं बना, न ही इनका उद्देश्य रहा।

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गुलाब कोठारी

जैसे-जैसे राष्ट्रीय दल कमजोर पड़े, उनमें परिवर्तन होता गया। उसी काल में कुछ नेताओं ने अपने-अपने दल बना लिए और क्षत्रप बन बैठे। राष्ट्रीय राजनीति से इनका सम्बन्ध नहीं बना, न ही इनका उद्देश्य रहा। इनकी लड़ाई में फंसकर कांग्रेस भी लगभग प्रांतीय स्वरूप में आ गई। एकमात्र भाजपा के साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ था, यही दल आज अकेला राष्ट्र्रीय स्वरूप में खड़ा है। चूंकि सभी प्रांतीय दल व्यक्तियों के सहारे खड़े थे अत: उनका स्वरूप सामन्तवादी होता चला गया। वही भ्रष्टाचार, वही अत्याचार-लूट-खसोट। कहीं भी उन्होंने लोकतंत्र को पनपने नहीं दिया। इस बार के लोकसभा चुनाव में सभी क्षेत्रीय-व्यक्तिवादी दल अंतिम सांसे लेते दिखाई पड़े। आप आंख उठाकर देखिए तो! हर दल का मुखिया अपने-अपने परिवार को जिताने में लगा था। न राष्ट्रीय चिन्तन दिखाई पड़ा, न ही स्वयं के दल की चिंता। पिछले विधानसभा चुनावों में जनता इनको आईना दिखा चुकी है।

जन-गण-मन यात्रा में मेरे पटना दौरे में भी यही स्पष्ट हुआ कि लालू यादव को राजद की चिन्ता नहीं है, अपने परिवार के आगे। मानो राजद का गठन परिवार के लिए ही किया था। लालू ने परिवार के लिए वोट मांगे, राजद के लिए नहीं। वे समझ चुके हैं कि परिणाम क्या होंगे।

अमेठी-रायबरेली में सोनिया गांधी ने सार्वजनिक रूप से कहा था कि ‘मैं अपना बेटा आपको सौंप रही हूं। यह आपको निराश नहीं करेगा।’ प्रियंका भी भाई के लिए ही संकल्प करके बैठी थीं। कांग्रेस के लिए, भारत के लिए नहीं। पूरे प्रचार में अपने परिवार की ही गाथा सुनाई। बस, नरेन्द्र मोदी के विरुद्ध वक्तव्य थे! यूपी में मायावती एवं मुलायम सिंह का शासन काल कौन दोहराना चाहेगा? आज भी समाजवादी पार्टी, परिवार के लोगों को ही सत्ता में बनाए रखने के प्रयास कर रही है। अखिलेश यादव, पत्नी-डिम्पल, चाचा-शिवपाल सिंह तो शीर्ष पर हैं। सपा गौण है। बसपा खो गई। महाराष्ट्र में शरद पवार का परिवार तथा उद्धव ठाकरे का परिवार, दोनों में ही महाभारत चल रहा है। उद्धव ठाकरे भी शिवसेना के स्थान पर ‘ठाकरे’ खानदान के प्रतिनिधि हैं। अपने दादा केशव सीताराम ठाकरे से लेकर बाला साहब और पुत्र आदित्य ठाकरे के ही साम्राज्य की बात करते हैं। राज ठाकरे इनका ही भाई है।

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यही स्थिति शरद पवार-अजीत पवार-सुप्रिया सुले की है। ममता बनर्जी के परिवार की है, स्टालिन के परिवार की है। कैसे राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत अपने पुत्र वैभव को लेकर शहर-शहर, गांव-गांव गए। पार्टी और पुत्र का भेद स्पष्ट ही है। अपनी सत्ता को बनाए रखने के लिए केन्द्रीय नेतृत्व से अड़ गए। यही हाल वसुन्धरा राजे का सामने आया।

भाजपा में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी खुद के लिए ही वोट मांगे। मर्यादा की दृष्टि से इसको ‘अति’ कह सकते हैं, किन्तु उनके पीछे लाभार्थी कौन हैं? वे 140 करोड़ जनता को परिजन कहते हैं।

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भले ही पार्टी मर जाए

सत्ता में आज ‘मन’ लुप्त हो गया। यहां ‘मन’ है। बाकी जगह या तो धन है या तन है। ये दोनों सत्ता के ‘साइड इफेक्ट’ हैं। सत्ता की पहचान मन से होती है। सत्ता में मद भी होता है। भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा का बयान प्रमाण है। भागते घोड़े को चाबुक मार दिया। ‘भाजपा स्वयं सक्षम है। स्वयं अपना कार्य, बिना संघ की सहायता के, कर सकती है।’ इसी मद में भाजपा ने कुछ प्रत्याशी भी आत्मघाती चुन लिए। भाजपा उत्तर भारत के कई प्रदेशों में शीर्ष पर बैठी है। ऊपर जाने को जगह ही नहीं है। नीचे ही आना होगा। यह तथ्य चुनाव में बन रहा है। अत: ऐसे प्रदेशों में 2-3 सीटें छूटेंगी। बिहार में 4-5 सीटें भी छूट सकती हैं।

बिहार में रणनीति नीतिश कुमार पर टिकी है। तीनों पुराने बाहुबली -पप्पू यादव, आनन्द मोहन-शहाबुद्दीन के लोग आज भी प्रभावी हैं-कोशी और पूर्णिया में। सीमावर्ती क्षेत्रों की स्थिति भिन्न है। इस बार जातीय समीकरण बदल गए, हावी हो गए। मूल आधार खिसकते दिखाई दिए। युवा जागरूक हो गया। वह अपना भविष्य तलाश रहा है। वह समझ रहा है कि इतने बंग्लादेशी नहीं आते तो बेरोजगारी ऐसी कभी नहीं थी। वोट जरूरी है, भले ही बेटा बेरोजगार हो जाए। मेरा परिवार सत्ता में बना रहे, भले ही पार्टी मर जाए।