प्रदेश में जीवनदायिनी कहे जाने वाली एम्बुलेंस को लेकर जानलेवा लापरवाही बरती जा रही है। सरकारी एम्बुलेंस में हर महीने जांच की खानापूर्ति हो रही है तो निजी एम्बुलेंस को जांचने का अधिकार ही स्वास्थ्य विभाग को नहीं है।
आशीष जोशी
प्रदेश में जीवनदायिनी कहे जाने वाली एम्बुलेंस को लेकर जानलेवा लापरवाही बरती जा रही है। सरकारी एम्बुलेंस में हर महीने जांच की खानापूर्ति हो रही है तो निजी एम्बुलेंस को जांचने का अधिकार ही स्वास्थ्य विभाग को नहीं है। ऐसे में कई बार मरीजों की जान पर बन आती है, लेकिन इस ओर कोई गंभीर नहीं है। निजी एम्बुलेंस को तो सरकार ने जैसे खुली छूट ही दे रखी है। यह कितनी जीवनरक्षक है, इसे जांचने का कोई सरकारी प्रावधान ही नहीं है। सूबे का स्वास्थ्य महकमा खुद मानता है कि निजी एम्बुलेंसों को जांचना उनके अधिकार क्षेत्र में ही नहीं है। परिवहन विभाग एम्बुलेंस का पंजीयन करता है और संचालन की स्वीकृति भी वही देता है। उसके बाद विभाग केवल इनके वाहनों की फिटनेस चैक करता है। अंदर जीवनरक्षक उपकरण काम कर रहे हैं या नहीं, इसकी जांच कोई नहीं कर रहा।
हैरानी की बात है कि एम्बुलेंस श्रेणी में पंजीकृत वाहन को सरकार ने टैक्स फ्री कर रखा है तो दूसरी तरफ लूट की खुली छूट भी दे रखी है। अधिकांश जिलों में इनकी दरें ही तय नहीं है। जहां कोरोनाकाल में दरें तय की गई, वहां भी पालना नहीं हो रही है। कोविड के दौरान भी इनकी मनमानी और लूट की खूब शिकायतें आईं थी। प्रदेश के सरकारी अस्पतालों के बाहर सड़क पर इनका ही कब्जा रहता है। अस्पताल के मुख्य द्वार पर कई बार ये गाड़ियां यातायात में बाधक बनती हैं तो कई मर्तबा मरीज को ले जाने को लेकर चालक झगड़े पर उतारू हो जाते हैं।
इधर, सरकारी एम्बुलेंस सेवा 108 और 104 के आए दिन बीच रास्ते खड़ी होने से मरीज की जान सांसत में आने के मामले कई बार सामने आते हैं। वर्ष 2008 में प्रदेश में सरकारी अस्पतालों की एम्बुलेंस के सामानांतर मरीजों को अस्पताल पहुंचाने के लिए 108 एम्बुलेंस सेवा शुरू की गई थी। उस वक्त यह सेवा एमओयू के तहत शुरू की गई थी। बाद में इसमें ठेका प्रथा की घुसपैठ हो गई। हर महीने प्रत्येक एम्बुलेंस पर सरकार करीब डेढ़ लाख रुपए खर्च कर रही है। बावजूद इसके एम्बुलेंस की ठीक से मेंटेनेंस नहीं हो रही।
प्रदेश में जननी सुरक्षा के लिए 104 के नाम से ऐसी ही एक और एम्बुलेंस सेवा संचालित है। इसकी हालत और भी ज्यादा बदतर है। सरकार की ओर से संबंधित ठेका फर्म को महीने का प्रति एम्बुलेंस एक से डेढ़ लाख रुपए तक भुगतान किया जा रहा है। मरीज को सुविधा मिले या नहीं, लेकिन खर्च का मीटर चलता रहता है।
जीवनरक्षक चिकित्सा उपकरणों से लैस होने का दावा करने वाली सरकारी और निजी दोनों एम्बुलेंस की हेल्थ ऑडिट होनी चाहिए। सरकारी एम्बुलेंस की जांच भी महज कागजी खानापूर्ति न होकर भौतिक सत्यापन जरूरी है। वहीं निजी एम्बुलेंस को जांचने की भी व्यवस्था अविलंब कायम करनी होगी। ताकि मरीज को ‘गोल्डन आवर्स’ में अस्पताल पहुंचाकर इनके जीवनरक्षक होने का दावा सार्थक साबित हो सके।