पत्रिका समूह के संस्थापक कर्पूर चंद्र कुलिश जी के जन्मशती वर्ष के मौके पर उनके रचना संसार से जुड़ी साप्ताहिक कड़ियों की शुरुआत की गई है। इनमें उनके अग्रलेख, यात्रा वृत्तांत, वेद विज्ञान से जुड़ी जानकारी और काव्य रचनाओं के चुने हुए अंश हर सप्ताह पाठकों तक पहुंचाए जा रहे हैं।
लोकतंत्र की दुहाई देते रहने वाले राजनीतिक दल अपने यहां संगठनात्मक चुनाव प्रक्रिया और दल की सदस्यता के मामले में शायद ही लोकतांत्रिक होते हों। चुनाव सुधार की तमाम बातें करते वक्त राजनीतिक दलों में घुस आई बुराइयों पर भी खूब चर्चा होती है। इन दिनोंं बिहार में विधानसभा चुनाव व राजस्थान समेत कुछ राज्यों में उपचुनावों की प्रक्रिया जारी है। चुनावों के मौके पर दलीय निष्ठा का अभाव, धनबल की पूछ जैसी बुराइयों का उल्लेख करते हुए कुलिश जी ने 27 वर्ष पहले लिखा था कि चुनाव सुधारों से पहले राजनीतिक दलों को खुद सुधरना होगा। आलेख के प्रमुख अंश:
चु नाव सुधारों के विषय में बरसों से कहा जा रहा है कि अपराधीकरण, दलबदल, फर्जी मतदान इत्यादि बुराइयों पर काबू पाया जाए। चुनाव सुधार की आवश्यकता के विज्ञान में कोई विवाद नहीं है। अवश्य चुनाव प्रणाली में सुधार होना चाहिए। मैं भी इस राय का हूं कि चुनाव-प्रणाली में सुधार होना चाहिए। इसके साथ ही मैं यह भी महसूस करता हूं कि चुनाव सुधार का एकमात्र उपाय कानून नहीं है। खेद का विषय है कि हम सभी तरह के सुधार, कानून बनाकर नौकरशाही के द्वारा करना चाहते हैं। सभी राजनीतिक दल चुनाव सुधार की बात कहते हैं। क्या वे कभी सोचते हैं कि वे अपने दल में चुनाव की कोई प्रणाली रखते हैं। चुनाव तो सभी दलों को करवाना पड़ता है परन्तु वे कानूनी बन्दिश के कारण भी होते हैं। एकाध संगठन स्वेच्छा से भी चुनाव करवाते हैं। सदस्यों के आधार पर पदाधिकारियों का चुनाव हो जाना एक बात है परन्तु सदस्यता के लिए भी कोई मानदण्ड हो। साधारण सदस्य के लिए हालांकि कोई योग्यता निर्धारित नहीं की जा सकती परन्तु उसमें यह देखना तो उचित ही होगा कि सदस्य बनने वाला अपने राजनीतिक दल में आस्था रखने वाला है या किसी स्वार्थवश भर्ती होना चाहता है। बहुधा सत्तारूढ़ दल में घुसने वाले ऐसे ही होते हैं जो किसी न किसी तात्कालिक स्वार्थ की पूर्ति के लिए घुस जाते हैं। ऐसे लोग थोक में सत्तारूढ़ दल में घुसते हैं। इस बड़ी घुसपैठ को रोकना व्यावहारिक नहीं लगता, परन्तु यही शुरुआत होती है आगे की बुराइयों को जन्म देने की। चुनाव सुधार की प्रक्रिया राजनीतिक दलों से ही शुरू होनी चाहिए। सदस्यता, पदाधिकारियों के चयन, विधायिका चुनाव में उम्मीदवारों के चयन एवं मंत्रिमंडल में पद सौंपने एवं बाद में चुनाव क्षेत्रों के पोषण तक की सुनिश्चित प्रक्रिया राजनीतिक दलों को तय करनी होगी। राजनीतिक दल जब तक कानून और चुनाव आयोग पर निर्भर करेंगे तब तक समस्याएं बनी ही रहेंगी। दल बदल कानून जीता जागता प्रमाण हैं। कानून से भी चुनाव सुधार नहीं होंगे बल्कि दलों को स्वयं सुधरना होगा।
चुनावों में धनबल की पूछ
राजनीतिक दलों को यह मानना ही पड़ेगा कि चुनाव सुधार का जिम्मा चुनाव आयोग का नहीं, बल्कि उनका है। अब संगठन यदि सुधरे हुए हों तो आयोग भी लाभदायक होगा और कानून भी कारगर होगा। राजनीतिक दलों की सबसे बड़ी समस्या चुनाव के समय पैदा होती है। सत्तारूढ़ या संभावित सत्तारूढ़ दलों के सामने उम्मीदवारों की भीड़ जमा होती है। उम्मीदवारों के चयन का इन दलों के पास कोई मापदण्ड नहीं होता। अत: आपाधापी मची रहती है। इसी दौरान दलबंदी पैदा होती है। इसी दौरान धनबल की पूछ होती है। चुनाव लडऩे वाले दल या उम्मीदवार का एक ही लक्ष्य होता है, पद प्राप्ति और उससे धन प्राप्ति। सत्ता प्राप्ति जब लक्ष्य बन जाता है तो सत्ता का उद्देश्य यहीं समाप्त हो जाता है। उद्देश्यहीन सत्ता या दिशाहीन प्रभुसत्ता ही अनेक दुराचार का कारण बन जाती है। इसी से भ्रष्टाचार बढ़ता है।
(24 मार्च 1998 के अंक में ‘कानून से चुनाव सुधार नहीं हो सकता’ आलेख के अंश )
अवसरवादिता को दें झटका
म तदाता के सामने राजनीतिक दलों का नहीं, देश के भविष्य का भी प्रश्न है। सबसे बड़ा सवाल यह है कि राजनीतिक जीवन में आज के दौर में जो गिरावट आई है वह कैसे दूर हो? युवा मतदाताओं को विशेषत: इस प्रश्न पर विचार तो करना ही होगा, यह सोचकर मतदान भी करना होगा कि देश के नए शासक अपने सामने कतिपय जीवन आदर्श रखकर चलें। निरी अवसरवादिता एवं कोरी पद लिप्सा को एक बार फिर से गहरा झटका दिया जाना चाहिए, जिससे देश का जनजीवन शुद्ध एवं प्रबुद्ध हो।
( कुलिश जी के अग्रलेखों आधारित पुस्तक ‘हस्ताक्षर’ से )