कहने के लिए हम शिक्षक को राष्ट्र निर्माता कहते हैं। उसे भविष्य की पीढ़ी का निर्माण करने वाला भी मानते हैं। उससे हम यह उम्मीद भी करते हैं कि वह समाज के लिए एक उदाहरण बने, लेकिन आज उसे पहले जैसा सम्मान नहीं मिलता। जो समाज अपने शिक्षक का सम्मान नहीं करता है वह समाज कभी भी तरक्की नहीं कर सकता।
डॉ. नरेन्द्र इष्टवाल
प्रोफेसर हिंदी, कॉलेज शिक्षा राजस्थान
व्य क्ति के जीवन में शिक्षा का महत्त्व निर्विवाद है। शिक्षा जीवन से अज्ञान का अंधकार ही दूर नहीं करती बल्कि व्यक्ति के जीवन को ज्ञान से आलोकित भी करती है। शिक्षा ही किसी व्यक्ति को संस्कारशील, विचारशील और चेतनाशील बनती है। शिक्षा ही व्यक्ति को दुनिया देखने की दृष्टि प्रदान करती है, उसे अच्छे बुरे की पहचान कराती है। सही मायने में शिक्षा ही किसी व्यक्ति को मानव बनाती है। इसीलिए भारतीय संस्कृति में शिक्षा को अत्यधिक महत्त्व दिया गया है।
प्राचीन काल में शिक्षक को गुरु कहा जाता था। भारतीय परंपरा में शिक्षक का दर्जा ईश्वर से भी पहले माना गया है। 'गुरू गोविन्द दोऊ खड़े काके लागूं पांय, बलिहारी गुरु आपने गोविन्द दियो बताय' जैसे दोहे हमारी संस्कृति में सदियों से रचे बसे हैं। कालांतर में समय परिवर्तन के साथ गुरुकुल, गुरु और शिष्य के मायने भी बदल गए हैं। अब गुरुकुल की जगह स्कूल-कॉलेजों ने ले ली है। कल का शिष्य आज का छात्र बन गया है, जिसका उद्देश्य शिक्षा प्राप्त कर येन-केन प्रकारेण डिग्री हासिल करना ही रह गया है। ऐसी डिग्री जिसके सहारे वह कोई नौकरी प्राप्त कर सके। गुरु भी अब वेतनजीवी शिक्षक बना दिया गया है। अब शिक्षक के पास न गुरु जैसी स्वतंत्रता रह गई है और न पहले जैसे अधिकार। आज सब कुछ बदल गया, लेकिन शिक्षक के प्रति समाज की अपेक्षाएं नहीं बदलीं।
आज भी शिक्षक को राष्ट्र निर्माता माना जाता है। उसे नई पीढ़ी का निर्माण करने वाला माना जाता है। उसे जीवन मूल्यों का रक्षक कहा जाता है। यह माना जाता है कि वह सभी तरह की नैतिकताओं का पालन कर समाज के समक्ष एक उदाहरण प्रस्तुत करे। वह 'सादा जीवन और उच्च विचार' की प्रतिमूर्ति हो। हम रह चाहे 21वीं शताब्दी में रहे हों पर चाहते हैं कि शिक्षक आज भी गुरुकुल व्यवस्था का शिक्षक बना रहे। दुनिया में सभी कुछ बदल जाए किंतु शिक्षक को नहीं बदलना चाहिए। शिक्षक समाज की इन्हीं भारी भरकम अपेक्षाओं के तले दबा जा रहा है। एक तरफ समाज की अपेक्षाएं हैं और दूसरी तरफ कड़वी हकीकत। दोनों में इतना अंतर है कि शिक्षक बीच में फंस कर रह जाता है।
हकीकत में आज का शिक्षक समाज का सबसे निरीह व्यक्ति है। उसे पढ़ाने के अलावा कई तरह के गैर शैक्षणिक कार्य भी करवाए जाते हैं। आज ऐसे सारे कार्य भी शिक्षक से कराए जाते हैं जो शिक्षक की गरिमा के प्रतिकूल है। इसके विपरीत अगर हम शिक्षकों के कार्य स्थल की परिस्थितियों पर नजर डालें तो हमें पता चलेगा कि वह कितनी विकट परिस्थितियों में कार्य कर रहा हैं। बहुत से स्कूल-कॉलेजों में बिजली तक नहीं है। छात्र संख्या के हिसाब से पर्याप्त क्लास रूम नहीं हैं, जो क्लास रूम हैं ,,उनमें सभी छात्र बैठ नहीं सकते। कक्षाओं में पंखें जैसी सामान्य सुविधा भी नहीं है। क्लास रूम में पर्याप्त फर्नीचर नहीं है, जो है वह टूटा-फूटा है। अधिकतर स्कूलों कॉलेजों में पीने के पानी की भी समुचित सुविधा नहीं है।
समाज में शिक्षक का कैसा सम्मान होना चाहिए यह समझने के लिए हमें शिक्षक दिवस मनाने के पूरे प्रकरण को समझना होगा। एस. राधाकृष्णन राष्ट्रपति बनने से पहले शिक्षक थे। राष्ट्रपति बनने पर उनके कुछ प्रशंसक उनका जन्म दिवस मनाने की अनुमति लेने उनके पास गए। पहले तो उन्होंने मना ही कर दिया, बहुत जोर देने पर उन्होंने कहा कि 5 सितंबर को मेरे जन्मदिन के रूप में नहीं बल्कि 'शिक्षक दिवस' के रूप में मनाओ। मैं राष्ट्रपति से पहले शिक्षक हूं। तभी से 5 सितंबर शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जा रहा है। एक राष्ट्रपति के मन में शिक्षक के प्रति इतना सम्मान था, लेकिन लगता है आज वह सम्मान का भाव समाज में नहीं है।
कहने के लिए हम शिक्षक को राष्ट्र निर्माता कहते हैं। उसे भविष्य की पीढ़ी का निर्माण करने वाला भी मानते हैं। उससे हम यह उम्मीद भी करते हैं कि वह समाज के लिए एक उदाहरण बने, लेकिन आज उसे पहले जैसा सम्मान नहीं मिलता। जो समाज अपने शिक्षक का सम्मान नहीं करता है वह समाज कभी भी तरक्की नहीं कर सकता। आज शिक्षक दिवस के अवसर पर हम सभी को यह संकल्प लेना चाहिए कि हम शिक्षक के खोए हुए सम्मान की पुनस्र्थापना करेंगे और यही शिक्षक दिवस के आयोजन की सार्थकता होगी। शिक्षकों को भी यह जिम्मेदारी है कि वे अपनी गरिमा के अनुरूप आचरण करें ताकि कोई उन पर उंगली न उठा सके और उनका सम्मान बना रह सके।