बिहार की 36 प्रतिशत आबादी पर महागठबंधन ने दांव खेला है। यह वही वोटर है जो चुनाव में गेम बदल देता है।
बिहार की राजनीति में जाति समीकरण हमेशा से सत्ता का रास्ता तय करते रहे हैं। इनमें भी 'अति पिछड़ा वर्ग' (Extremely Backward Castes, EBC) वह धुरी है, जिसने हर दौर में सत्ता की दिशा मोड़ी है। करीब 36 प्रतिशत आबादी वाला यह वर्ग न तो यादवों की तरह परंपरागत ताकत रखता है, न ही दलितों की तरह किसी एक पार्टी के स्थायी वोटर रहे हैं। यही वजह है कि इन्हें बिहार का 'स्विंग वोटर' कहा जाता है जो कभी नीतीश कुमार का तुरुप का पत्ता, कभी महागठबंधन की ढाल बने। अब राहुल गांधी इन्हीं वोटरों पर बड़ा दांव लगाने की कोशिश कर रहे हैं।
नीतीश कुमार ने अपने राजनीतिक सफर की शुरुआत से ही EBC को केंद्र में रखा। उनकी योजनाएं 'लड़कियों के लिए साइकिल', 'पंचायत में एक-तिहाई आरक्षण' और अति पिछड़ों के लिए दूसरी विशेष योजनाएं सबसे सफल हथियार रहे। उन्होंने इनके जरिए इन्हीं छोटे-छोटे जातीय समूहों को जोड़ने का प्रयास किया। 2010 में इसका असर भी दिखा। लोकनीति-CSDS के आंकड़े बताते हैं कि करीब 45 से 50 प्रतिशत EBC वोट एनडीए को मिले और नीतीश कुमार को प्रचंड बहुमत मिला। इसके बाद नीतीश की छवि ‘अति पिछड़ों के मसीहा’ की बन गई। और लगातार दो चुनावों में इसका फायदा उठाया।
2015 में नीतीश ने लालू प्रसाद यादव से हाथ मिलाया और महागठबंधन बना। इस बार वही EBC वोटर महागठबंधन की तरफ चला गया। उसने 2010 में एनडीए को जिताया था, पर 2015 में करीब 55 फीसदी वोट के साथ महागठबंधन की सरकार बनाने में मददगार साबित हुआ। इस चुनाव में नीतीश और लालू की जोड़ी ने बीजेपी को हाशिए पर पहुंचा दिया।
बिहार में ईबीसी जनसंख्या 2.7 करोड़ के आसपास है। महागठबंधन ने चुनावी घोषणा पत्र के पहले पार्ट को जारी किया है। इसमें कहा गया है कि उनको 30 फीसदी आरक्षण दिया जाएगा। ऐसा तब होगा अगर बिहार में इस बार महागठबंधन की सरकार बनती है। उनका कहना है कि एससी/एसटी की तरह अति पिछड़ा एक्ट बनाएंगे। साथ ही पंचायती राज और निकाय चुनाव में कोटे को 20 फीसदी से बढ़ाकर 30 फीसदी करेंगे।
| विधानसभा चुनाव | एनडीए | महागठबंधन |
| 2010 में एनडीए सरकार | 45-50% | 30% |
| 2015 में महागठबंधन | 30-35% | 55% |
| 2020 में फिर एनडीए | 45% | 35% |
2020 का साल आते-आते तस्वीर बदली। इस बार करीब 45 फीसदी EBC वोट एनडीए की झोली में गए, जबकि महागठबंधन को मात्र 35 प्रतिशत समर्थन मिला। हालांकि जदयू कमजोर हुआ, लेकिन बीजेपी ने अपनी पकड़ मजबूत की। इससे यह साफ हुआ कि EBC हर चुनाव में अपना रुख बदलते हैं और वही सत्ता का फैसला करते हैं।
राजनीतिक विश्लेषक बताते हैं कि नीतीश कुमार की लगातार पाला बदलने वाली राजनीति ने EBC वोटरों की निष्ठा को ठेस पहुंचाई है। यही वह खाली जगह है, जिसे राहुल गांधी भुनाना चाहते हैं। राहुल ने बार-बार जाति जनगणना की मांग उठाकर 36% आबादी वाले इस वर्ग को नए सिरे से साधने की कोशिश की है। कांग्रेस और महागठबंधन का दावा है कि EBC अब बचा हुआ वर्ग नहीं बल्कि निर्णायकवर्ग है। इसी रणनीति के जरिए राहुल इस वोट बैंक को महागठबंधन के पाले में लाना चाहते हैं।
बिहार का पुराना चुनावी इतिहास उठाकर देखें तो पाएंगे कि जब-जब EBC वोटर ने किसी नेता को अपनाया तो उसकी राजनीति चमक उठी। कर्पूरी ठाकुर ने आरक्षण फार्मूले से इन्हें जगह दी। वह दो बार बिहार के सीएम रहे। उन्होंने EBC के लिए 'आजादी और रोटी' का फॉर्मूला दिया था। उसके बाद लालू यादव ने अति पिछड़ा आरक्षण 12 फीसदी से बढ़ाकर 14 प्रतिशत किया। साथ ही पिछड़ा कोटा 8 से 12 प्रतिशत कर दिया था। इसके बाद राबड़ी देवी ने इसे 18 फीसदी कर दिया था। नीतीश कुमार भी इनकी मदद से 3 दशक तक सीएम की कुर्सी पर बने रहे।