Dussehra 2025: आज़ादी के छह साल बाद वर्ष 1953 में बिलासपुर रेलवे क्षेत्र में दशहरा उत्सव की नींव रखी गई थी। चुचुहियापारा रेलवे फाटक के पास पेट्रोमैक्स की रोशनी में पहली बार रामलीला का मंचन हुआ और उसके समापन पर 20 फीट ऊंचे रावण पुतले का दहन किया गया।
Dussehra 2025: आज़ादी के छह साल बाद वर्ष 1953 में बिलासपुर रेलवे क्षेत्र में दशहरा उत्सव की नींव रखी गई थी। चुचुहियापारा रेलवे फाटक के पास पेट्रोमैक्स की रोशनी में पहली बार रामलीला का मंचन हुआ और उसके समापन पर 20 फीट ऊंचे रावण पुतले का दहन किया गया। यह परंपरा धीरे-धीरे नगर और आसपास के गांवों की सबसे बड़ी सांस्कृतिक पहचान बन गई।
दशहरा केवल बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक नहीं है, बल्कि यह समाज को जोड़ने वाला सांस्कृतिक पर्व भी है। बिलासपुर का दशहरा उत्सव इसका अनूठा उदाहरण है। आज़ादी के छह साल बाद सन् 1953 में बिलासपुर रेलवे क्षेत्र से इसकी नींव रखी गई थी। चुचुहियापारा रेलवे फाटक के पास जब पेट्रोमैक्स की रोशनी में पहली बार रामलीला का मंचन हुआ, तो किसी ने सोचा भी नहीं था कि यह आयोजन आने वाले वर्षों में नगर की सबसे बड़ी सांस्कृतिक पहचान बन जाएगा।
रामलीला के समापन पर जब 20 फीट ऊंचे रावण पुतले का दहन किया गया, तो लोगों में अपार उत्साह देखने को मिला। उस समय सीमित साधनों के बावजूद लोगों ने पूरे मनोयोग से आयोजन किया। इसी आयोजन ने बिलासपुर के दशहरा महोत्सव की नींव रख दी।
वर्षों बीतने के साथ यह उत्सव केवल एक धार्मिक कार्यक्रम नहीं रहा, बल्कि सांस्कृतिक समागम बन गया। यहां रामलीला के साथ-साथ मेलों, सांस्कृतिक प्रस्तुतियों और सामाजिक मेलजोल की परंपरा भी जुड़ गई। नगरवासियों के लिए दशहरा अब केवल एक त्यौहार नहीं, बल्कि उनकी पहचान बन गया है।
72 वर्षों से लगातार चल रही यह परंपरा आज भी उसी श्रद्धा और उत्साह के साथ निभाई जाती है। हर साल रावण के पुतले के आकार, सजावट और प्रस्तुति में बदलाव आता गया, लेकिन इसके पीछे की भावना वही रही - असत्य पर सत्य की विजय और बुराई पर अच्छाई का प्रतीक।
हिन्दुस्तानी सेवा समाज ने इस परंपरा को निरंतर आगे बढ़ाया। इससे जुड़े देबाशीष घोष सहित अन्य सदस्यों ने जानकारी देते हुए बताया कि रामलीला की शुरुआत उत्तर प्रदेश से आए रेलकर्मी मोहनलाल कश्यप, सूर्यकुमार अवस्थी, बिहारी लाल यादव, शौखीराम मौर्य और मुदलियार बाबू जैसे कलाप्रेमियों ने की थी। शुरुआती वर्षों में यह आयोजन छोटा था, लेकिन आम जनता के उत्साह और सहयोग से इसका स्वरूप विस्तृत होता गया। 10 दिनों तक चलने वाली रामलीला का समापन दशहरा पर रावण दहन से होने लगा।
शहर में सार्वजनिक रूप से पहला रावण दहन चुचुहियापारा फाटक के पास हुआ, बाद में इसे रेलवे नॉर्थ ईस्ट इंस्टीट्यूट मैदान में शिफ्ट कर दिया गया। उस समय मैदान खुला और बिना बाउंड्रीवाल का था, लेकिन दर्शकों की भीड़ लगातार बढ़ती रही। परंपरा को मजबूत करने के लिए तत्कालीन डीआरएम एम.के. बनर्जी ने यहां रावण दहन के लिए विशेष चबूतरा और लोहे के खंभे बनवाए। इससे आयोजन और भव्य हो गया।
शुरुआत में रेलवे क्षेत्र में पुतले की ऊंचाई 20 फीट थी, जो 30, 40 और फिर 65 फीट तक पहुंच गई। अब शहर में विभिन्न जगहों पर 60, 70 और 80 फीट के रावण जलाए जा रहे हैं। इस बार कुछ आयोजनों में 101 फीट ऊंचा पुतला भी तैयार किया जा रहा है। दशहरा उत्सव न केवल धार्मिक, बल्कि सांस्कृतिक धरोहर भी बन चुका है, जिससे बिलासपुर की जनता का गहरा आत्मीय लगाव है।