Five New Giants: दुनिया के पुराने पांच दिग्गज (बीमारी व गरीबी आदि) हार चुके हैं, लेकिन अकेलापन, लत, ध्यान भटकाव, झूठ और जटिलता जैसी पांच नई चीजें समाज को खोखला कर रही हैं।
Five New Giants: दुनिया की कुछ खतरनाक चीज़ें हैं, जो लोगों के लिए मुश्किल का सबब (Western Society Crisis) बन गई हैं। इस कारण कई देशों में खलबली (Five New Giants) मची हुई है। ध्यान रहे कि द्वितीय विश्व युद्ध घरेलू मोर्चे के साथ-साथ युद्ध के मैदान में भी जीता गया था। तब 1942 की शुरुआत में ही ब्रिटिश सरकार ( British Government)ने नाज़ियों की हार के फौरन बाद "पुनर्निर्माण के मार्ग पर पांच चीजों का नाश करने का संकल्प लिया था। ये (Five New Giants) हैं बीमारी, अभाव, अज्ञानता, गंदगी और आलस। इस संकल्प ने मनोबल बढ़ाया और युद्धोत्तर कल्याणकारी राज्य के लिए एक आदर्श पेश किया। उदारवादी नेता विलियम बेवरिज ने इन चीजों की पहचान करने वाली सरकारी रिपोर्ट लिखी थी, उन्होंने लिखा था, " दुनिया के इतिहास में एक क्रांतिकारी क्षण क्रांतियों का समय होता है, न कि मरम्मत का समय होता है।"
आज हम फिर दो मोर्चों पर एक साथ फंसे हुए हैं। एक तरफ़ रूस और चीन के नेतृत्व में बन रही “निरंकुश शक्तियों की नई धुरी” के खिलाफ़ एक खामोश, अनघोषित जंग चल रही है। दूसरी तरफ़ तकनीक की तेज़ रफ़्तार वाली क्रांति हमारी ज़िंदगी को हर रोज़ नया आकार दे रही है। बेवरिज ने जिन पाँच पुराने दानवों को चिह्नित किया था, उन्हें पश्चिमी देशों ने काफी हद तक क़ाबू में कर लिया है। दरअसल1942 के मुक़ाबले आज वहाँ लोग औसतन 20 साल ज़्यादा जी रहे हैं। लेकिन जैसे ही एक दुश्मन मरा, उसकी जगह पाँच नए और कहीं ज़्यादा चालाक दुश्मन खड़े हो गए। ये नए दानव पहले जैसे खुले तौर पर दिखाई नहीं देते, पर इनका असर पहले से कहीं ज़्यादा गहरा और ख़तरनाक है। यही वजह है कि सारी भौतिक समृद्धि के बावजूद पश्चिमी समाज आज इतने बीमार, बेचैन और निराश महसूस कर रहे हैं। लोग भविष्य को लेकर पहले से कहीं कम भरोसा रखते हैं। इन नए दानवों ने साबित कर दिया है कि सिर्फ़ अमीरी और लंबी उम्र से इंसान खुश नहीं रह सकता।
अकेलापन (Modern Loneliness Epidemic) अमेरिका में हर चौथा घर अब सिर्फ़ एक शख्स का है – कोई “कैट लेडी”, कोई “केव मैन”। जस्ट-इन-टाइम वाली नई अर्थव्यवस्था में लोग अकेले काम करते हैं और अकेले ही रहते हैं। 40 साल के हर चौथे अमेरिकी ने आज तक शादी नहीं की, जबकि 1970 में यह आँकड़ा सिर्फ़ 6 प्रतिशत था। अकेलापन इंसान को अंदर से खोखला कर देता है। शोध कहते हैं कि इसका असर उतना ही जानलेवा है जितना रोज़ 15 सिगरेट पीना। यह निजी त्रासदी ही नहीं, पूरी सभ्यता के लिए खतरा है – जर्मनी में हर महिला के हिस्से अब सिर्फ़ 1.35 बच्चे हैं, दक्षिण कोरिया में तो महज़ 0.7। यानि आने वाली पीढ़ियाँ ही गायब होती जा रही हैं।
आज लत एक भयानक महामारी बन चुकी है। इसका ज़िम्मेदार सिर्फ़ फेंटेनाइल जैसी नई सुपर-ड्रग्स नहीं हैं, बल्कि बड़े-बड़े नामी-गिरामी ब्रांड भी हैं जो जान-बूझकर नशे की आदत डालने में माहिर हो गए हैं। खाने-पीने की कंपनियाँ चीनी, नमक और चर्बी का ऐसा घातक कॉकटेल बनाती हैं कि एक बार खाओ तो आदत छूटना मुश्किल है। नतीजा? हर पांच अमेरिकियों में से दो से ज़्यादा अब मोटापे के शिकार हैं।
डिजिटल कंपनियाँ भी पीछे नहीं हैं। वो हमारे दिमाग़ को हाईजैक करने वाले एल्गोरिदम बनाती हैं ताकि हम घंटों-घंटों स्क्रॉल करते रहें। इंटरनेट अब एक विशाल “ध्यान चुराने की मशीन” बन गया है – हर पल नोटिफिकेशन, सुर्खियाँ, ई मेल, डिस्काउंट ऑफर। टीवी पर 24 घंटे न्यूज़ चैनल चलते हैं जिनके नीचे क्रॉलर दौड़ता रहता है। कारों में भी पूरा मनोरंजन सिस्टम लगा रहता है। इस माहौल में पले-बढ़े बच्चे और युवा अब दस मिनट भी एकाग्र होकर कुछ करने में असमर्थ हो रहे हैं। दशकों तक बढ़ता हुआ फ्लिन प्रभाव (यानी औसत IQ में लगातार वृद्धि) इस सदी की शुरुआत से पहली बार उल्टा पड़ने लगा है।
तकनीक और सूचना-युद्ध के गठजोड़ ने झूठ को सुपरसोनिक रफ़्तार दे दी है। इंटरनेट की दिग्गज कंपनियाँ इतिहास की पहली ऐसी “ब्रॉडकास्टर” हैं जिन्हें सच बोलने या संतुलित ख़बर देने की कोई बाध्यता नहीं है। विरोधी ताकतें – ख़ासकर रूस – इस खुली छूट का भरपूर फ़ायदा उठा रही हैं। उनका मकसद लोकतंत्र की नसों में झूठ का ज़हर घोलना है, ताकि समाज में नफ़रत फैले, बहस का स्तर गिरे और लोग आपस में ही लड़ने लगें। नतीजतन उदार लोकतंत्र की सबसे मज़बूत नींव–सच्चाई और तर्कपूर्ण बहस–अब खतरनाक रूप से कमज़ोर पड़ रही है।
हर काम अब जापानी गांठ की तरह उलझता चला जा रहा है। पासवर्ड पहले से कहीं ज़्यादा पेचीदा होते जा रहे हैं। फ़ॉर्म भरते-भरते हाथ दुखने लगते हैं। सरकारी दफ़्तर दिन-ब-दिन काफ्का की कहानियों जैसे हो गए हैं। मूसा को सिर्फ़ दस आज्ञाएँ मिली थीं, आज हमारे पास दस अरब नियम हैं – और कई तो एक-दूसरे से उल्टे भी हैं। ये जटिलता बहुत बड़ा अन्याय करती हैं। जो कम समझदार हैं, वे सबसे ज़्यादा पिसते हैं। जो चालाक और वकील हैं, उनके लिए तो रोज़गार का खज़ाना बन जाता है। ये प्रगति की सबसे बड़ी दुश्मन भी है। वैज्ञानिक अपना ज़्यादातर वक़्त ग्रांट के फ़ॉर्म भरने और कमेटियों में बैठने में समय गँवा देते हैं। निर्माण कंपनियाँ कंक्रीट डालने से ज़्यादा वक़्त कागज़ी नियमों में फँस कर बिताती हैं।
दरअसल लत, बेचैनी, अकेलापन – ये सब मिलकर एक-दूसरे को और ताक़तवर बनाते हैं। ख़ासकर युवा लड़के जो स्क्रीन की ग़ुलामी में डूबे हैं, समाज से कटकर अनंत स्क्रॉल के अंधेरे में खो जाते हैं। सब मिलकर एक ऐसी दुनिया बना रहे हैं जो हमारे हाथ से फिसलती जा रही है। अगर हमें फिर से आज़ादी और आगे बढ़ने का जोश चाहिए, तो इन पाँच नए दानवों को मारना ही होगा।
सरकारों को अब एक साथ कई जंग लड़नी पड़ेगी। कृषि मंत्रालय को सोचना होगा कि वो किस तरह नशीली चीज़ों को बढ़ावा दे रहा है। शिक्षा मंत्रालय को बच्चों को सूचना के झूठ और हेरफेर से बचाना होगा। चार बड़ी नीतियाँ जो गेम बदल सकती हैं ।पहली और सबसे ज़रूरी – राष्ट्रीय सेवा फिर से शुरू करें। स्कूल छोड़ चुके युवाओं को दो में से एक रास्ता चुनने को कहें: सैन्य सेवा या सामाजिक सेवा। राष्ट्रीय सेवा समाज के उन टुकड़ों को जोड़ देगी जो आज एक-दूसरे से पूरी तरह कटे हुए हैं। ये अकेलेपन की महामारी को भी बड़ा झटका देगी। मसलन ब्रिटेन में ही 18-24 साल की उम्र के दस लाख से ज़्यादा युवा आज न पढ़ते हैं, न नौकरी करते हैं – बस समाज से अलग-थलग इलेक्ट्रॉनिक दुनिया में अपना वक़्त बर्बाद कर रहे हैं। स्वीडन और फ़िनलैंड जैसे दूरदर्शी देश (जो रूस को पास देखते हैं) पहले ही राष्ट्रीय सेवा दोबारा शुरू कर चुके हैं। अब बाक़ी देशों की बारी है।
पढ़ना ध्यान भटकाने का रामबाण उपाय है। क्योंकि यह लोगों को एक ही पाठ पर लंबे समय तक ध्यान केंद्रित करने के लिए बाध्य करता है। (महान ऑस्ट्रियाई लेखक स्टीफ़न ज़्विग ने किताब को "एक मुट्ठी भर मौन, जो पीड़ा और बेचैनी कम करता है" के रूप में परिभाषित किया था।) फिर भी पढ़ना एक लुप्त होती आदत है। वहीं 8-18 वर्ष की आयु के केवल 30% ब्रिटिश नागरिक कहते हैं कि उन्हें अपने खाली समय में पढ़ने में मज़ा आता है, जो 2005 में शुरू हुए पठन सर्वेक्षण के बाद से 36% की कमी है। सभी देशों को इन प्रवृत्तियों को उलटने के लिए हर संभव प्रयास करना चाहिए, चाहे वह पठन-समर्थक अभियान हों या स्कूलों में लिखित पाठ पर नए सिरे से ध्यान केंद्रित करना।
सरकारों को जटिलता के प्रति अपनी लत कम कर के अपने घरों को व्यवस्थित करना चाहिए। इसमें वकीलों और नौकरशाही के पदों पर आसीन लोगों जैसे जटिलता पर पनपने वाले हित समूहों से निपटना शामिल होगा। उन्हें निजी क्षेत्र की कंपनियों को भी जटिलता के बजाय सरलता और अस्पष्टता के बजाय बोधगम्यता को प्राथमिकता देने के लिए मजबूर करना चाहिए। दरअसल सरकारों ने कभी-कभी इसे अपनाया है। मसलन कैस सनस्टीन ने 2009-12 में व्हाइट हाउस के सूचना और नियामक मामलों के कार्यालय के प्रमुख के रूप में अपने काम के केंद्र में नौकरशाही जटिलता रूपी "कीचड़" कम करने को सामने रखा है। लेकिन जटिलता खत्म करना एक सामयिक उत्साह के बजाय एक स्थायी सरकारी प्राथमिकता होना चाहिए।
आप जहां भी देखें - झूठ, लत या ध्यान भटकाने की महामारी - डिजिटल कंपनियां ही इसके केंद्र में हैं। इन कंपनियों को उस सामाजिक प्रदूषण से निपटने के लिए मजबूर करना चाहिए, जो हम पैदा कर रहे हैं। अमेरिकी संचार शालीनता अधिनियम की धारा 230 निरस्त कर के शुरुआत करें, जो उन्हें ऑनलाइन प्रकाशित सामग्री के लिए सीमित संघीय छूट देती हैं। उन्हें नकारात्मक पक्ष के बजाय सकारात्मक रुख का पक्ष लेने के लिए प्रोत्साहित करने की भी जरूरत है। एआई हमें विशाल जटिलता से निपटने का एक शानदार अवसर देता है। एल्गोरिदम को एकाग्रता के साथ-साथ ध्यान भटकाने के लिए भी समायोजित किया जा सकता है।
बहरहाल दुनिया भर में सार्वजनिक क्षेत्र अक्सर फूला हुआ और निष्क्रिय लग सकता है, लेकिन ऐसा इसलिए नहीं है, क्योंकि यह पूरी तरह से नौकरीपेशा लोगों से भरा हुआ है। ऐसा इसलिए है क्योंकि यह दुनिया को परेशान करने वाली नई चुनौतियों से कटा हुआ है। सरकारी क्षेत्र को नए दिग्गजों से निपटने का मौका दें - ऐसी चीजें, जो हम सभी को प्रभावित और परेशान करती हैं - और यह अपनी ऊर्जा और उत्साह से हमें हैरत में डाल सकता है।
(ब्लूमबर्ग का यह आलेख पत्रिका.कॉम पर दोनों समूहों के बीच विशेष अनुबंध के तहत पोस्ट किया गया है।)